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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 153 'मूकमाटी' काव्य के आद्यन्त विस्तृत रूप से आवृत इस प्रकार के कुछ मानववादी तत्त्व हैं, जो उसे सामान्य काव्य की श्रेणी से उठाकर महानता की पीठ पर प्रतिष्ठापित करते हैं और उसे पढ़ने को और समझने को मज़बूर करते ऊर्ध्वगति में जाने वाली, पतन-पाताल से उत्थान-उत्ताल की ओर अग्रसर मछली मिट्टी के चरणों पर आ गिरती है। वहाँ पर कवि की प्रज्ञा यह प्रश्न करती है कि क्या सचमुच मानवता पूर्णत: मरी है ? निम्न अवतरण में उससे सम्बन्धित अंश को देखा जा सकता है : “यहाँ पर इस युग से/यह लेखनी पूछती है/कि/क्या इस समय मानवता पूर्णत: मरी है ?/क्या यहाँ पर दानवता/आ उभरी है...? लग रहा है कि/मानवता से दानवत्ता/कहीं चली गई है ?/और फिर दानवता में दानवत्ता/पली ही कब थी वह ?" (पृ. ८१-८२) इन शब्दों को कहते समय कवि बड़े आशावादी होकर नज़र आते हैं। भारतीय संस्कृति का आदर्श वाक्य 'वसुधैव कुटुम्बकम्' पर उनका विश्वास उमड़ पड़ता है। मगर वह साथ-साथ यह भी कहते हैं कि अब वह सुलभ नहीं रहा, उसका स्वरूप अब परिवर्तित हो चुका है, उसका आधुनिकीकरण हुआ है । “वसु यानी धन-द्रव्य/धा यानी धारण करना/आज धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का" (पृ. ८२)। _व्यापारी प्रवृत्ति में फंसकर अन्धदृष्टि पनपाने वाले मनुष्य को सत् की खोज में प्रवृत्त करना ही कवि का उद्देश्य है। इसी कारण युगों की आचरण मूलक व्याख्या भी 'मूकमाटी' में प्राप्त होती है । कवि कहते हैं : "सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है बेटा !/और असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ/सत् को असत् मानने वाली दृष्टि स्वयं कलियुग है, बेटा!" (पृ. ८३) अन्त में कवि का आदेश है : "अपने जीवन-काल में/छली मछलियों-से/छली नहीं बनना विषयों की लहरों में/भूल कर भी/मत चली बनना ?" (पृ. ८७) इस प्रकार 'मूकमाटी' को उसके अन्तःसत्त्व के कारण उसे महाकाव्यात्मक रूप प्राप्त होता है । इस सन्दर्भ में मुझे दसवीं शताब्दी के कन्नड़ भाषा के जैनी कवि पम्प के शब्द स्मरण हो आते हैं- “मानव जाति तानोंद कुलम्"मानव मात्र की एक मात्र जाति है। अत: किसी जाति या धर्म की सीमा में सीमित न होकर मानव धर्म के आचरण का एक दार्शनिक महाकाव्य बना है 'मूकमाटी'। म बालदरी.... उपयोगकीनत....
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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