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________________ 152 :: मूकमाटी-मीमांसा का स्वागत करते हैं, जिससे प्रणीत 'नवनीत' को हम यहाँ पर काव्यशास्त्र की सन्धि के रूप में देख सकते हैं। 'साधना एव तप:' और उसके परिणाम की ओर इशारा 'मूकमाटी' की आत्मा है, देखिए : " राही बनना ही तो / हीरा बनना है, / स्वयं राही शब्द ही विलोम - रूप से कह रहा है / राही ही रा और / इतना कठोर बनना होगा / कि तन और मन को / तप की आग में / तपा-तपा कर जला-जला कर/राख करना होगा ।" (पृ. ५७) अहं का विलयन ज़रूरी है : " राख बने बिना / खरा - दर्शन कहाँ ?" (पृ. ५७) शिल्पी जीव को या कहें मिट्टी को गढ़ने वाला है। इस काया को ऊपर उठाना आवश्यक है। इस तत्त्व को कूप की गहराई में तिरने की भावना रखने वाली मछली के प्रतीक से प्रकट करते हैं । काया की छाया मछली पर पड़ती है और : " उसकी मानस- स्थिति भी / ऊर्ध्वमुखी हो आई, / परन्तु / उपरिल - काया तक मेरी काया यह/कैसे उठ सकेगी / यही चिन्ता है मछली को !” (पृ.६६) यहाँ पर कवि जैन दर्शन का यथातथ्य आदर्श प्रस्तुत करते हैं : 66 'धम्मो दया- विसुद्धो' / यही एक मात्र है/ अशरणों की शरण !” (पृ.७१) प्रकृति विज्ञान के विशेषज्ञ जिसे 'फुड चेन - आहार धारा' कहकर पहचानते हैं, सांसारिकता में उसके स्वरूप को देखकर कवि का मन दु:खी होता है। यहाँ पर छोटी मछली को बड़ी मछली साबूत निगलती है। इसको उद्देशित कर वह स्पष्ट शब्दों में कहते हैं : " सहधर्मी सजाति में ही / वैर वैमनस्क भाव / परस्पर देखे जाते हैं ! श्वान श्वान को देख कर ही / नाखूनों से धरती को खोदता हुआ गुर्राता है बुरी तरह !" (पृ.७१) संसार की बगुलाई को देखकर मछली कह उठती है : "प्रभु-स्तुति में तत्पर / सुरीली बाँसुरी भी / बाँस बन पीट सकती है प्रभु-पथ पर चलने वालों को । / समय की बलिहारी है !" (पृ.७३) मछली को बालटी में उतरना है। मगर उसकी कामना है कि आगामी छोरहीन काल में इस घट में काम न रहे। वह चाहती है कि उसकी शुभ यात्रा का प्रयोजन यही हो कि साम्य-समता ही उसका भोजन हो, भावना सदोदितासदोल्लसा हो । दानव का शरीर धरकर मानव के मन पर हिंसा का प्रभाव न हो। ध्यान से ग्रहण करने की बात है कि इच्छाओं की मछली सत् के साथ ही जुड़ने की प्रेरणा देती है और साथ ही विस्तृत अर्थवाले मानव शब्द के साथ कवि अपनत्व जताकर इच्छा करते हैं कि उस पर हिंसा का प्रभाव न हो ।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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