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मूकमाटी-मीमांसा :: 151
कवि सामाजिक जीवन दर्शन को प्रस्तुत करते हुए एक सामाजिक सहज समता की भावना के उद्भाव की ओर पाठक को इस प्रकार प्रेरित करते हैं तथा करुणा के साथ वासना के सम्बन्ध को इनकार करके संसार के श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक विचारकों को भी इस सम्बन्ध में दुबारा चिन्तन करने के लिए चुनौती करते हैं ।
'वर्ण' की जड़ मानव समाज में इतनी मजबूत है कि हम मानवीयता से कई बार दूर हो जाते हैं । 'मूकमाटी' का शिल्पी ‘सम-वर्ण-संकर' को प्रतिष्ठापित करता है । उसके अनुसार व्यावहारिक जीवन में वर्ण का मतलब : "वर्ण का आशय / न रंग से है / न ही अंग से / वरन् चाल-चरण, ढंग से है ।" (पृ. ४७)
ध्यान देने की बात यह है' सहज शब्दों से एक महत्त्वपूर्ण तथ्य का उद्घाटन यानी लिए आचरण की शुद्धता का द्वार खोल दिया गया है। इस जगत् में कंकड़ जैसे कठोर व्यक्ति से मिलाप नहीं होता, जैसे :
सुखी समाज को देखने के होते हैं, जिनका मिट्टी
" दूसरों का दुःख-दर्द / देखकर भी / नहीं आ सकता कभी जिसे पसीना / है ऐसा तुम्हारा / सीना !" (पृ. ५० )
उसको माटी से प्राप्त आदर्श इस प्रकार है :
"लघुता का त्यजन ही / गुरुता का यजन ही / शुभ का सृजन है।” (पृ. ५१)
कवि और साहित्यकार साधारणतया कथावाचक होते हैं । कथा का माध्यम ग्रहण करते हुए सत्युग की कल्पना में ले जाकर पाठक को अतीत के सत्य- सुन्दर - शिवमय जगत् में आज के युग का दर्शन कराता है। कथन क्रम में एक अतीत की सम्भाव्यता और वर्तमान के यथार्थ की तुलनात्मकता एवं भविष्य के आदर्श की सम्भाव्यता की कड़ी जुड़ती है। महाकाव्य की धारा में इसी को आरम्भ, मध्य तथा अन्त के चौखट में परखा जाता है । इसी कारण प्राय: भारतीय प्राचीन काव्यधारा में हमें आकर्षित करने वाले धीरोदात्त, धीर ललित और धीर शान्त नायक दिखाई देते हैं । तदनुसार नायिकाएँ, उपनायक आदि के दर्शन होते हैं, सन्धियाँ होती हैं, प्रदेश भेद के अनुसार रीतियाँ होती हैं । जीवन के उस बृहद् दर्शन में प्रासंगिक कथावर्णन आते एवं तिरोहित होते हैं । अठारह अध्यायों की बृहद् मंजरी होती है । 'मूकमाटी' में ये सब कुछ नहीं हैं। पात्र मूर्तिमान् नहीं हैं। समाज के किसी वर्ग के वह प्रतिनिधि नहीं हैं । धरा, मिट्टी और उसको गढ़ने वाला कुम्भकार शब्दों के चयन के आधार पर वे स्त्री लिंगी और पुल्लिंगी हैं, मगर आचरण और व्यवहार दोनों के लिए समान हैं। सदाचरण का महत्त्व है ।
कथा-प्रवाह का क्या कहें ? कथा है नहीं, मगर जीवन की धारा और यहाँ के व्यवहारों की सत्यता से इनकार भी नहीं है । उसके फलस्वरूप परिणामों पर ध्यान देते हुए सदाचरण को सम्बल देना चाहिए ।
‘महाकाव्य' के आठ/अठारह अध्याय एवं बन्ध 'मूकमाटी' में आपको कहीं नहीं मिलते । कवि का अपना मुक्त छन्द है जो हिन्दी की नई कविता की शैली में बनता जाता है। अध्याय सांकेतिक हैं। हर अध्याय का शीर्षक है और शीर्षक में अर्थगर्भित तथ्य है । यह समझ और आचरण की कविता है । अत: जीवन के चार आश्रम और अवस्थाओं की तरह पूरा काव्य-बन्ध चार खण्डों में बँटा है।
कवि प्रकृति की सन्धिवेला से काव्य का आरम्भ करते हैं और सम्प्रेषण के लिए आवश्यक अहिंसात्मक तत्त्वों