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150 :: मूकमाटी-मीमांसा
काव्यशास्त्र की धारा में एक आधिकारिक एवं प्रासंगिक कथा सामग्री अनिवार्य रूप से प्रकट होती है । यहाँ पर 'मूकमाटी' में एक महाकाव्यात्मक धारा है, एक वैचारिक आग्रह है, एक अनुभव सहज या अनुभव प्राप्त आदर्श का तथ्य है।
__ कवि साधना के महत्त्व पर जोर देते हैं। उससे प्राप्त होने वाले परिणाम का इन शब्दों में चित्रण हुआ है : “मीठे दही से ही नहीं,/खट्टे से भी/समुचित मन्थन हो/नवनीत का लाभ अवश्य होता है" (पृ. १३-१४)। ।
सम्प्रेषण की सफलता पर कवि का दृढ़ विश्वास है । वे उसे सद्भावों की पौध पुष्ट -सम्पुष्ट करने वाली मानते हैं, जिसके लिए अहिंसक पगतली को आवश्यक मानते हैं । उनका अखण्ड विश्वास है :
“संघर्षमय जीवन का/उपसंहार/नियम रूप से/हर्षमय होता है।" (पृ.१४) कवि को अपनी भाषा पर पूरा अधिकार है जिससे वे शब्द संचालन का पूरा-पूरा सदुपयोग करते हैं । उक्तिप्रत्युक्ति तथा अक्षर-साम्य-प्रत्युक्ति शैली का सम्पूर्ण काव्य में सफल रूप से प्रयोग करते हैं। इससे सामान्य श्रोता एवं पाठक भी 'मूकमाटी' के सन्देश को सहज रूप से ग्रहण करता है तथा साधना से जुड़ता है । पात्रों के सांकेतिक स्वरूप के चयन के सन्दर्भ में एक बार फिर यहाँ पर उल्लेख करना सार्थक होगा।
_ 'कुम्भकार' या शिल्पी की कल्पना का स्वरूप देखिए- 'कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो/भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है" (पृ. २८)।
आरम्भिक अवस्था में ओंकार को नमन करने से उसके अहंकार का वमन वहीं पर हो जाता है।
'माटी' दया-ममता की मूर्ति है । अपने ऊपर पड़ने वाले प्रहार वह खुशी-खुशी से सह लेती है और बोरी में भरे जाने पर दुल्हन-सी शरमाती हुई झाँकती है। मिट्टी के माध्यम से पीड़ा की सहज मान्यता मनुष्य जीवन में प्राप्त होती है और परदुःख-कातरता का महत्त्व भी स्पष्ट होता है।
"पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है और
पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है।” (पृ. ३३) बोरी की रगड़ से गधे की पीठ छिल जाती है। उसमें भारी मिट्टी अपने को निमित्त कारण मानकर दुःखी होती है। वह इसलिए :
"हृदय-वती आँखों में/दिवस हो या तमस्/चेतना का जीवन ही झलक आता है,/भले ही वह जीवन/दया रहित हो/या दया सहित।/और
दया का होना ही/जीव-विज्ञान का/सम्यक् परिचय है ।” (पृ. ३७) दया के प्रति लोगों की एकान्त धारणा है । अत: इसका निषेध करते हुए कवि करुणा की श्रेष्ठता को उजागर करते हैं। 'मूकमाटी' से स्वयं स्फूर्त हो निम्न पंक्तियाँ निकलती हैं :
"दया-करुणा निरवधि है/करुणा का केन्द्र वह/संवेदन धर्मा'चेतन है पीयूष का केतन है ।/करुणा की कर्णिका से/अविरल झरती है समता की सौरभ-सुगन्ध;/ऐसी स्थिति में/कौन कहता है/कि करुणा का वासना से सम्बन्ध है !" (पृ. ३९)