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________________ 148 :: मूकमाटी-मीमांसा जुड़ने वाले स्वभाव, उसके आकार एवं विकृति के विनाश का विश्लेषण सहज रूप से करते हुए आगे बढ़ते हैं। चन्द्रमा के ओझल होने के साथ रात्रि बीतती है, कुमुदिनी मुरझाती है, सूर्योदय के साथ कमलिनी विकसित होती है । पुरुष एवं प्रकृति के मिलन में भारतीय सांस्कृतिक परिवेश और समाज-रचना का आवरण-जिसमें स्व-पर की कल्पना का एक सुन्दर दृश्य प्रस्तुत होता है-कवि इसमें एक मानसिक क्रिया ईर्ष्या' के जन्म की ओर इशारा करते हैं और परोक्ष रूप से ही सही, उस पर विजय पाने को प्रेरित करते हैं : "इO पर विजय प्राप्त करना/सब के वश की बात नहीं।" (पृ.२) कवि इस सम्बन्ध में अपने शब्द भण्डार का पूरी मात्रा में उपयोग भी करते हैं । सूर्य के अनेक नाम जो उसके विभिन्न सन्दर्भो से और क्षणों से जुड़े हैं, स्पष्ट हो उठते हैं- जिस 'भानु' को शिशु के रूप में सम्बोधित किया, वही 'प्रभाकर' बन अपने कर-छुवन से कुमुदिनी को बन्द करते हैं, तारिकाएँ उसी 'दिवाकर' की आँखों से बचकर निकलती भारतीयता के आवरण में बालाएँ अभी तक अबलाएँ हैं। कवि के शब्दों में “अबला बालायें/...अपने पतिदेव/चन्द्रमा के पीछे-पीछे हो/छुपी जा रहीं।" (पृ. २)। इस दृश्य को कवि प्रकृति की क्रिया में समाहित होते हुए पाते हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृति के इतिहास की विकासधारा की लकीर खींचते हुए उसकी पृष्ठभूमि में अपने काव्य का आरम्भ करते हैं। मेरा तात्पर्य है कि सर्वप्रथम 'मूकमाटी' एक भारतीयता का काव्य है। इस सन्दर्भ में कवि के द्वारा प्रयुक्त भाषा के सम्बन्ध में भी दो बातें कहना उचित होगा। सांस्कृतिक काव्य होने से संस्कृत की शब्दावली का आधार लेने के बाद भी कवि सामान्यजन तक अपना सन्देश पहुँचाने हेतु जन-जीवन से जुड़े शब्द माटी, कुम्भकार आदि को अपनाते हैं। एक प्रकार से संस्कृत, हिन्दी या जनभाषा का सामंजस्य यहाँ है । काव्यशैली तो मुक्त-प्रवहिणी है ही। कवि के द्वारा दिए गए शीर्षक पर भी यहाँ थोड़ी-सी चर्चा कर लेना ठीक होगा। कवि के अनुसार : "वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से/वरन्/चाल-चरण, ढंग से है। यानी!/जिसे अपनाया है/उसे/जिसने अपनाया है/उसके अनुरूप अपने गुण-धर्म-/"रूप-स्वरूप को/परिवर्तित करना होगा वरना/वर्ण-संकर-दोष को/वरना होगा !" (पृ. ४७-४८) सम्भव है पाठक इस अनुरूपता का व्यतिरेकी अर्थ ग्रहण करें। अत: कवि इसे आगे बढ़कर और स्पष्ट करते "नीर की जाति न्यारी है/क्षीर की जाति न्यारी,/दोनों के परस-रस-रंग भी/परस्पर निरे-निरे हैं/और/यह सर्व-विदित है, फिर भी/यथा-विधि, यथा-निधि/क्षीर में नीर मिलाते ही नीर क्षीर बन जाता है।” (पृ. ४८) उनके अनुसार : "नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है,/वरदान है। और/क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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