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'मूकमाटी' : समझ और आचरण की कविता
प्रो. बी. वै. ललिताम्बा मैंने इधर कुछ दिनों से 'मूकमाटी' का बड़े चाव से अध्ययन किया है । इस काव्य को मैंने बार-बार पढ़ा है, एक ऐसा आकर्षण और सम्मोहन इस रचना में पाया है कि अपने आप यह पढ़ी जाती है । एक प्रकार का अनूठा काव्य
'मूकमाटी' मात्र काव्य नहीं, एक महाकाव्य है, जिसका कारण यह है कि यह मिट्टी पर जीने वाले मानवों को एक मूक सन्देश देती है। कोई भी मानव इस आदर्श के वृत्त से अछूता नहीं होता। यही कारण है कि इस कृति की विशेषता है कि इस काव्य की धारा में कोई मृत्तिका पात्र नायक या नायिका बनकर प्रस्तुत नहीं होता, किसी के जीवन की कोई कहानी आधार नहीं बनती । अथाह सागर के प्रवाह में लहरों के बीच से उठने वाले अनगिनत जीवों की तरह इस संसार का हर जीव परोक्ष रूप से इसका पात्र बनता है।
इस प्रकार 'मूकमाटी' पात्र रहित एवं बिना कथावस्तु के प्रवाहित होने वाला एक रसपूर्ण काव्य है । मगर फिर भी इसमें एक आत्मिक संवाद निरन्तर संचालित है जो धरा, माटी, शिल्पकार एवं मछली के प्रतीकों में प्रतिबिम्बित है। प्रकृति के आवरण में यह संवाद आवृत है। कोई भी अलौकिकता इसके साथ जुड़ी नहीं है, न ही कोई कहानी है । मगर काव्य की सरिता इस पूरे काव्य में झरती है। भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों पर कोई सिद्धान्ती छात्र 'मूकमाटी' को लेकर चर्चा नहीं कर सकता । वह इसलिए कि 'मूकमाटी' अपने उद्देश्यों के कारण एक संकेतात्मक रचना है । एक उदासीन जैन मुनि की रचना है जिसमें कृति का इस संसार से लगाव जीव मात्र के व्यक्तित्व के उद्धार के प्रति है । एक आदर्श की आशा इसकी सरहद में है। और यह आदर्श व्यक्तित्व निर्माण के लिए है, एक सुखी और शुद्ध जगत् को बनाने के लिए है।
आदर्श की कल्पना साधारणतया थोथी कल्पना होती है जिस कारण यह सिद्धान्तों के स्तर पर दिखावा बनकर असफल होती है, वहीं 'मूकमाटी' मूक होकर भी जीवन को बनाने की ओर अग्रसर होती है । एक मानसिक साधना पर यहाँ बल दिया गया है जो मनुष्य को एक दृढ़ व्यक्तित्व प्रदान करती है।
'मूकमाटी' की एक और विशेषता यह है कि यह एक साधक की साधना से परिपूरित फल है जिसमें असम्भाव्य की परिभाषा नहीं हो सकती। साथ ही किसी जाति या धर्म विशेष के लिए इसमें कोई सीमित सन्देश नहीं, अपितु मानव मात्र के लिए एक आचार संहिता है जो इस काव्य को सामान्य की कोटि से महानता के शिखर पर पहुँचाती है । यही कारण है 'मूकमाटी' का कलेवर सांकेतिक और चिन्तना से पूर्ण शीर्षकों में आबद्ध है।
सम्पूर्ण काव्य चार विशिष्ट खण्डों में संयोजित है- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'; 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन'; 'अग्नि-परीक्षा : चाँदी-सी राख' । इन शीर्षकों में हम जीवन की मानसिक अवस्था के चार स्तरों के भी दर्शन कर सकते हैं। अन्तिम स्तर, मानसिक परिपक्वता का है जिसे कवि ने सार्थक शब्दों में चाँदी-सी राख में अग्नि-परीक्षा के माध्यम से सम्बोधित किया है।
___ आरम्भ का खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' है । सूर्योदय और चन्द्रमा के विलय के दृश्य वर्णन के साथ 'मूकमाटी' का शुभारम्भ हुआ है । भानु अपनी माँ की मार्दव गोद में लेटा है और करवटें ले रहा है। प्रकृति के दैनंदिन दृश्य के चिन्तन में पाठक सराबोर होकर जैसे ही आगे बढ़ता है- मैं यहाँ पर ध्यान दिलाना चाहती हूँ कि कवि किस प्रकार प्रकृति के जीवों को प्रकृति के साथ जोड़ते हुए एक एकात्म वलय में पाठक को पिरोते हैं- तथा जन्म के साथ