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146 :: मूकमाटी-मीमांसा
आतंकवाद के निवारण के उपाय तथा बहुविश्रुत समाजवाद की व्याख्या से कवि की समीचीन दृष्टि का परिचय मिलता है । बढ़ती हुई धन-संग्रह की हवस पर भी करारी चोट करते हुए अन्धाधुन्ध संकलित का समुचित वितरण किए जाने की प्रेरणा दी गई है । वैवाहिक विकृतियाँ भी उसकी निगाह से ओझल नहीं हैं। दहेज लोलुपों द्वारा पाणिग्रहण को प्राण-ग्रहण का रूप देने पर खेद व्यक्त किया गया है । सन्त-समागम से संसार का अन्त मानने वाले मनीषी को बढ़ते हुए साधु शिथिलाचार को देख कर यह लिखने के लिए विवश होना पड़ा है :
. “कोष के श्रमण बहुत बार मिले हैं/होश के श्रमण होते विरले ही।" (पृ. ३६१)
0 "नाम-धारी सन्त की उपासना से/संसार का अन्त हो नहीं सकता।" (पृ.३६३) सम्पूर्ण कृति शान्त रस से सिंचित है । नव रसों की मौलिक परिभाषाएँ अद्भुत हैं। वीर, हास्य और शृंगार रस की व्याख्याएँ पढ़कर कवि-प्रज्ञा पर आश्चर्य-सा होता है। करुण रस को वह जीवन का प्राण, वात्सल्य को जीवन का त्राण तथा शान्त रस को जीवन का गान मानता है और अन्त में पाठकों को इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि सब रसों का अन्त होना ही शान्त रस है तथा रसों में वह रस-राज एवं रस-पाक है।
'मूकमाटी' आत्मा का संगीत है । सहज, शुद्ध, चैतन्य के उपासकों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए। सन्त्रास, तनाव और क्लेश से मुक्ति पाने के लिए कथनी और करनी के अन्तर को मिटाना होगा। इसके लिए 'मूकमाटी' मूक होकर भी मुखर है । ऐसे बोधगम्य एवं कलात्मक प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ बधाई की पात्र है।
[सम्पादक- 'जैन गज़ट' (साप्ताहिक), लखनऊ-उत्तरप्रदेश, २६ जनवरी, १९८९ ]
लज्जाके बट में
बती.सी कुमुदिनी प्रभाकर के कर खुवन से बचना चारती है वरः