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'मूकमाटी' : एक सन्त की काव्य यात्रा
प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन
आचार्यश्री विद्यासागरजी एक उत्कृष्ट सन्त तो हैं ही, एक कुशल कवि, वक्ता और विचारक भी हैं। उनकी अनेक कृतियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं। उनमें से आचार्य कुन्दकुन्द आदि जैनाचार्यों के कुछ प्रसिद्ध ग्रन्थों के हिन्दी पद्यानुवाद तथा कुछ प्रवचन संकलन काफी चर्चित और लोकप्रिय हुए हैं। 'नर्मदा का नरम कंकर, 'डूबो मत, लगाओ डुबकी, ‘तोता क्यों रोता ?' आदि अब तक के उनके प्रकाशित कविता संकलन हैं । यह अधुनातन कृति 'मूकमाटी' उनकी अद्यतन काव्य यात्रा का एक स्वर्णिम पड़ाव है ।
काव्यरुचि और साहित्यानुराग उन्हें विरासत में मिला है। उनके दीक्षा गुरु आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज स्वयं एक मेधावी कवि थे । उनके द्वारा रचित 'वीरोदय', 'दयोदय', 'जयोदय' आदि काव्यग्रन्थों ने जैन संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया है । आचार्य श्री विद्यासागर के कण्ठ में भी सरस्वती का निवास है । इसे गुरु का वरदान कहें या पूर्वपुण्योदय कि जिसके प्रभाव से उनके बोलने, गुनगुनाने तथा यहाँ तक कि चलने और उठने-बैठने में भी एक लय अनुस्यूत है । लय का कविता के साथ अटूट रिश्ता है । छन्द या कविता वही सफल है, जो लय से नियन्त्रित हो ।
तो कोई भी लिख सकता है किन्तु कविता लिखना सबके वश की बात नहीं है। इसके लिए चाहिए विशेष शब्द-संयोजन-कुशलता, कल्पनाशीलता, पाण्डित्य और प्रतिभा का एकरस योग । इस कृति में ऐसे योग का सर्वोत्तम उपयोग दिखाई देता है।
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'मूकमाटी' को एक महाकाव्य की संज्ञा दी गई है । सम्भव है कि महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों का निर्वाह इसमें नहीं हुआ हो किन्तु आह्लादजनक अमृत के समान अविवेक रूप रोग का अपहारक होने से इसके काव्यतत्त्व शंका के लिए कोई स्थान नहीं है । महाकाव्य का आधार प्रायः प्रथमानुयोग होता है अर्थात् उसकी कथावस्तु किसी महापुरुष के चरित्र से सम्बद्ध होनी चाहिए। इसमें किसी युगपुरुष का जीवन वृत्तान्त तो नहीं है किन्तु युग सत्य (मानवीय जीवन-मूल्यों एवं गुण सम्पदा) से साक्षात्कार अवश्य होता है। इसका फलक बहुत विस्तृत है, जो लगभग ५०० पृष्ठों में फैला हुआ है तथा सम्पूर्ण कृति चार खण्डों में विभाजित है । विद्वान् 'प्रस्तवन' लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के शब्दों में : " परिमाण की दृष्टि से तो यह ग्रन्थ महाकाव्य की सीमाओं को छूता ही है ।" "त्रिवर्गफलसन्दर्भं महाकाव्यं तदिष्यते” (आदिपुराण - जैनाचार्य श्री जिनसेन स्वामी, १ / ९९ ) के अनुसार इसमें धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग का वर्णन होने से भी इस कृति को महाकाव्य माना जा सकता है ।
धर्म-दर्शन का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि हर प्राणी में उत्थान - पतन की अनन्त सम्भावनाएँ छिपी रहती हैं। बीज में वृक्ष की भाँति क्षुद्र में विराट् अर्थात् आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने वाला कवि ही सही अर्थों में "जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि" की कहावत को चरितार्थ करता है। 'मूकमाटी' में भी माटी को प्रतीक बनाकर आत्मा से परमात्मा बनने की अपूर्व और अश्रुतपूर्व कला का मार्मिक कथन किया गया है।
जिस तरह मिट्टी में मंगल घट बनने की योग्यता रहती है, उसी तरह हर आत्मा में भी परमात्मा बनने की सम्भावना निहित है किन्तु मंगल घट का आकार पाने से पहले मिट्टी को कठोर साधना के मार्ग से गुज़रना पड़ता है। टीले में वह अशुद्ध दशा में स्थित रहती है। उसमें विजातीय तत्त्व कंकर आदि मिले रहते हैं । अशुद्धि निवारण की प्रारम्भिक भूमिका में उसे कुम्भकार की सहायता की अपेक्षा रहती है। वह उसे खोदता, छानता है और उसमें से कंकरों को अलग करता है। इतने पर भी मिट्टी को स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। इसके लिए उसे पानी में भीगने, गूंधे/मसले जाने, चाक