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________________ 142 :: मूकमाटी-मीमांसा (१०) इनके शब्द शास्त्र से सम्पृक्त होकर भी शास्त्रीय नहीं, काव्यीय हैं, क्योंकि इन्होंने शास्त्र में आत्मानुभव का तारल्य समाविष्ट किया है :. "परीक्षा के बाद / परिणाम निकलता ही है / पराश्रित - अनुस्वार, यानी बिन्दु - मात्र वर्ण - जीवन को / तुमने ऊर्ध्वगामी ऊर्ध्वमुखी / जो स्वाश्रित विसर्ग किया, / सो / सृजनशील जीवन का अन्तिम सर्ग हुआ।” (पृ. ४८३) (११) जीवन के मार्मिक पक्षों को उद्घाटित करने में इनके शब्द सर्वथा समर्थ हैं। (१२) शब्द और अर्थ आपसी द्वन्द्व की अन्तिम सीमा पर अभिव्यक्ति के लिए एक-दूसरे पर समर्पित होकर आपस में सन्धि करते हैं--शब्द विजयी हो जाता है और अर्थ अपराजित रह जाता है । (१३) अक्षर-अक्षर में शब्दत्व की अनुगूँज पैदा करने तथा उस शब्दत्व में अर्थतत्त्व की अनेकान्त सामर्थ्य भरने में इनका कोई जोड़ नहीं । (१४) इनकी शब्द-साधना सम्पूर्ण काव्य - साधना का पर्याय है। (१५) इनके शब्द-विनियोग का चातुर्य कहीं भी प्रेषणीयता को अवरुद्ध नहीं करता । (१६) शब्दों का नवीन व्याकरणीय प्रयोग तथा ब्रजभाषा के अव्ययों के प्रयोग से भाषा में अपूर्व मार्दव की सृष्टि हुई है : "सर्व-प्रथम चाव से / तट का स्वागत स्वीकारते हुए कुम्भ ने तट का चुम्बन लिया । / तट में झाग का जाग है।" (पृ. ४७९) 'जाग' में जागरित होने का भाव है । यह नवीन प्रयोग है । इसी प्रकार : O "घट में जब लौं प्राण / डट कर प्रतिकार होगा इसका ।” (पृ. ४७० ) (१७) देशज शब्दों और मुहावरों का सरस चमत्कारिक प्रयोग कर आचार्यजी ने अर्थ में सांस्कृतिक सुवास अधिष्ठित की है । इससे काव्यात्मक सृजनशीलता की अभिवृद्धि हुई है। (१८) शब्द-क्रीड़ा से भावानुभूति की प्रेषणीयता को प्रायः ठेस नहीं पहुँची है। हाँ, यह अवश्य हुआ है कि कहीं-कहीं शब्द-क्रीड़ा ने कवि को अपने जाल में इस तरह फँसाया है कि उससे उबरने के लिए कवि को काफ़ी मेहनत करनी पड़ी है। फलस्वरूप काव्य में गाम्भीर्य के स्थान पर नीरस विस्तार का समावेश हो गया है । तैलीय ज्वलन के स्थान पर तैलीय गन्ध के आगम ने इनकी इस महान् कृति में कहीं-कहीं काव्यात्मकता के मार्ग में अड़चनें डाली हैं। पर, ऐसे स्थल बहुत कम हैं। यह सम्पूर्ण महाकाव्य तैलीय जलन और ऊर्जा का महाकाव्य है, तैलीय गन्धपूर्ण अनावश्यक विस्तार का नहीं । कहना नहीं होगा कि यह सब आचार्यजी की शब्द - साधना का ही परिणाम है। (१९) आधुनिक बोध से इन्होंने अपने शब्दों को विचार प्रवणता और रसवत्ता प्रदान की है : " भीड़ की पीठ पर बैठकर / क्या सत्य की यात्रा होगी अब ! नहीं नहीं, कभी नहीं । " (पृ. ४७० )
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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