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'मूकमाटी' : एक मूल्यांकन
प्रो. श्रीनारायण मिश्र
इस विश्व में विद्या की जितनी विधाएँ हैं उन सबका एक मात्र उद्देश्य मानव को वह शिक्षा देना है जिससे वह सही अर्थ में मानव बन सके अर्थात् अपने को सन्मार्ग पर अभिनिविष्ठ करता हुआ दूसरों को भी वैसा ही करने की प्रेरणा दे सके। इस प्रकार की शिक्षा उपदेश यद्यपि सभी शास्त्रों का एक ही है तथापि उपदेश देने के प्रकारों में विविधता के कारण शास्त्रों में भी विविधता आ गई है । वेदादि शास्त्र प्रभुसम्मित उपदेश देते हैं, इतिहास - पुराणादि सुहृत्सम्मित और काव्य-नाटकादि कान्तासम्मित। इनमें प्रभुसम्मित और सुहृत्सम्मित उपदेश उन्हीं के लिए सफल होते हैं जो विनयी हैं, विवेकी हैं। पर ऐसे मानवों की संख्या बहुत छोटी रही है और आज के भौतिक युग में तो यह सर्वथा नगण्य है । इसलिए आज यदि सबसे अधिक उपयोगिता है तो केवल कान्तासम्मित उपदेश की । सम्भवत: इसी तथ्य को ध्यान में रखकर आदरणीय आचार्य विद्यासागरजी ने अपने विलक्षण काव्य 'मूकमाटी' की रचना की है।
इस काव्य के स्वरूप के बारे में यह कहना कठिन है कि यह एक महाकाव्य है या नहीं। परम्परा के अनुसार तो उसे महाकाव्य कहना उचित प्रतीत नहीं होता । किन्तु इसकी प्रबन्धात्मकता के आधार पर इसे एक उच्च कोटि का काव्य तो कहा ही जा सकता है। इसकी विषयवस्तु, जैसा पहले संकेत दिया जा चुका है, पूर्णत: आध्यात्मिक है । कवि के अध्यात्मवाद में विषय-वासना की निन्दा (पृ. ३७, १८६), पद- प्राप्ति में अभिमानजनकता (पृ. ४३४) के कारण असारता और भौतिक जीवन की नीरसता के सुस्पष्ट परिलक्षित होने पर भी पलायनवाद का कोई स्थान नहीं है । कवि स्पष्ट शब्दों में कहते हैं :
" अति के बिना / इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं / और इति के बिना / अथ का दर्शन असम्भव ! / अर्थ यह हुआ कि पीड़ा की अति ही / पीड़ा की इति है / और / पीड़ा की इति ही सुख का अथ है।” (पृ. ३३)
इससे निस्सन्देह यह प्रतीत होता है कि इस संसार में रह कर ही मानव इसकी दु:खमयता का अनुभव करता हुआ वह बोध तत्त्वज्ञान प्राप्त कर सकता है जिससे दुःख की निवृत्ति (पृ. २९७) होती और अखण्ड सुख की प्राप्ति होती है । यही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है। इससे यह स्पष्ट है कि कवि की दृष्टि में इस संसार के अनुभव इस अन्तर्मुख (पृ. १०९) अनुभव की पूर्वपीठिका है, अत: सांसारिक गतिविधियों से पलायन करने वाला मानव कभी वह अन्तर्दृष्टि प्राप्त नहीं कर सकता जो उसके अन्तिम लक्ष्य की साधिका हो सके। इसी अन्तर्दृष्टि से मानव स्वतन्त्र बन्धनमुक्त हो सकता है । सम्भवतः कवि की यह भावना औपनिषद - भावना से प्रभावित हो। इसी अन्तर्दृष्टि की प्राप्ति के लिए कवि ने इसके सभी उपकरणों-परोपकार (पृ. ३८, १६८, २५६ आदि), करुणा (पृ. ३७, २५९, आदि), दान (पृ. ३५४) और भक्ति (पृ. २९९ आदि) प्रभृति लोकोपकारक सद्गुणों का यथावसर प्रतिपादन किया है।
इस विकर्म की सबसे बड़ी विशेषता है अपने उपदेश के उपादान के रूप में 'मूकमाटी' की उपस्थापना । एक कुशल शिल्पी कुम्भकार अपने कला-कौशल से इस 'मूकमाटी' में ऐसी चेतना का संचार करता है जिसके फलस्वरूप सर्व मंगलकारक ‘मंगल-कलश' का प्रादुर्भाव होता है । इस अपूर्व कल्पना के मूल में कवि का उद्देश्य प्रायः माटी को मातृभाव की और कुम्भकार को पितृभाव की प्रतिमूर्ति के रूप में चित्रित करना है जिससे मानव-हृदय में इस 'विश्वम्भरा' माटी की अखिल सन्तानों में परस्पर भ्रातृभाव का अभ्युदय हो सके। इसी का संकेत कवि ने निश्छल साम्यभाव के चित्रण