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मूकमाटी-मीमांसा :: 137
जनन - जरन-मरण रूप है / नव-दो - ग्यारह हो जाता है पल में, / श, स, ष ये तीन बीजाक्षर हैं / इन से ही फूलता - फलता है वह
आरोग्य का विशाल-काय वृक्ष ! / इनके उच्चारण के समय
पूरी शक्ति लगा कर / श्वास को भीतर ग्रहण करना है / और नासिका से निकालना है / ओंकार - ध्वनि के रूप में ।
यह शकार-त्रय ही / स्वयं अपना परिचय दे रहा है कि
'श' यानी / कषाय का शमन करने वाला, / शंकर का द्योतक, शंकातीत, शाश्वत शान्ति की शाला ! / 'स' यानी / समग्र का साथी जिसमें समष्टि समाती, / संसार का विलोम - रूप / सहज सुख का साधन समता का अजस्र स्रोत ! / और / 'ष' की लीला निराली है । 'प' के पेट को फाड़ने पर / 'ष' का दर्शन होता है
'प' यानी पाप और पुण्य / जिन का परिणाम संसार है, जिसमें भ्रमित हो पुरुष भटकता है / इसीलिए जो
पुण्यापुण्य के पेट को फाड़ता है / 'ष' होता है कर्मातीत । यह हुआ भीतरी आयाम, / अब बाहरी भी सुनो ! / भूत की माँ भू है, भविष्य की माँ भी भू // भाव की माँ भू है, / प्रभाव की माँ भी भू । भावना की माँ भू है, / सम्भावना की माँ भी भू //भवानी की माँ भू है, भूधर की माँ भू है, / भूचर की माँ भी भू // भूख की माँ भू है, भूमिका की माँ भी भू //भव की माँ भू है, / वैभव की माँ भी भू, / और स्वयम्भू की माँ भी भू // तीन काल में / तीन भुवन में / सब की भूमिका भू । भू के सिवा कुछ दिखता नहीं / भू"भू"भू“भू/ यत्र यत्र - सर्वत्र "भू । 'भू सत्तायां' कहा है ना / कोषकारों ने युग के अथ में !"
[ सम्पादक- 'तीर्थंकर' (मासिक), इन्दौर - मध्यप्रदेश, दिसम्बर, १९८८ ]
पृ. 2.
लज्जा के घूँघट में...
लो!
ओर देती है। इधर-1 - अनहोनीसी घटना !
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