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'मूकमाटी': क्षणभंगुरता से गहन संवाद
डॉ. नेमीचन्द जैन ___ इधर के दो दशकों में दो अविस्मरणीय कृतियाँ प्रकाश में आई हैं : एक 'अनुत्तर योगी : तीर्थंकर महावीर' (चार खण्ड/१९७४-१९८१/ वीरेन्द्र कुमार जैन) तथा दो, 'मूकमाटी' (१९८८/आचार्य विद्यासागर मुनि)। इन्हें हम क्रमश: 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' और 'उपन्यासात्मक महाकाव्य' कह सकते हैं।
'मूकमाटी' के विद्वान् प्रस्तवन-लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने इसे 'आधुनिक भारतीय साहित्य की एक उल्लेखनीय उपलब्धि' और 'आधुनिक जीवन का एक अभिनव शास्त्र' निरूपित किया है। उनके उद्धरण-बहुल 'प्रस्तवन' में से यह पता लगाना कठिन है कि मिसरी की डली कहाँ से और कितनी मीठी है। उसकी मिठास सर्वत्र व्याप्त है।
'मूकमाटी' को मूक तो कह दिया है, किन्तु आत्मा के शाश्वत संगीत में निमग्न कवि ने माटी को एक पल भी मूक नहीं रहने दिया है । माटी की अनिर्वचनीयता पग-पग पर खुद-ब-खुद निर्वचन बनी है और उसने कई चिरन्तन उलझनों को पलक मारते हल किया है । मनीषी कवि ने न सिर्फ शब्द को चटखाकर उसके भीतर कारावासित अर्थ को उन्मुक्त किया है वरन् उसे नवार्थ/अभिनवार्थ देने में भी वह सफल हुआ है । शब्द को अर्थ देना एक सामान्य घटना है, किन्तु अर्थ को चेतना की गहराइयों से जोड़कर उसे पुन: अर्थवान् और प्रासंगिक करना किसी मनीषी का काम ही हो सकता है । शब्द को उसकी आर्थी निरम्बरता में पाना और उसमें अपनी परिशुद्ध मेधा के पात्र को अन्तिम हल तक ले पहुँचना परम पुरुषार्थ का विषय है-किसी सामान्य मनीषी के बस की बात वह नहीं है।
कवि ने माटी की चिरन्तन भंगुरता को प्रतीक के रूप में चुना है (असल में 'मूकमाटी' एक भेद-वैज्ञानिक रूपक है) और उसकी युगान्तर की पीड़ा को अक्षरश: समझने का सीधा-सघन प्रयत्न किया है। 'बिन्दु-बिन्दु-घट' की शैली में कवि ने तमाम विस्तृतियों को वर्णबद्ध कर लिया है।
'मूकमाटी' अर्थात् क्षण से एक विलक्षण/अनवरत डायलॉग-किसी योगी के लिए ही सम्भव था । बहुत कम शब्दों में, हम कहेंगे कि 'मूकमाटी' की भाषा 'समाधि भाषा' है, जिसके भीतर पैठने के लिए पाठक को भी समाधि में उतरने की आवश्यकता है । कवि प्रयोगधर्मी है। उसने शैली और भाषा दोनों ही तल पर कई अपूर्व प्रयोग किए हैं। कवि को वर्ण की विलोम/विपर्यय शक्ति का गहन बोध है । वर्ण-विनोद में से वर्ण की आवृत शक्तियों को अनावृत करने की जो क्षमता विद्यासागर मुनि में है, वह अन्यों में नहीं है (नहीं मिलती)। 'खरा' में से 'राख, 'राही' में से हीरा', 'याद' में से 'दया', 'लाभ' में से 'भला' ऐसे ही उदाहरण हैं। वर्ण-विच्छेद में से भी कवि ने अर्थ-छवियों की सफल खोज की है। 'सारेगम' में से 'सारे गम, पागल हो' में से 'पाग लहो, 'रस्सी' में से 'रस सी, रेतिल' में से रे तिल' इसी तरह के उदाहरण हैं । वर्ण-क्रीडा में से होकर अर्थ की गहराइयों में अवगाहन और वहाँ से पाठकों को एक अमोघ आध्यात्मिक रसास्वाद विद्यासागर जैसे महान् रसवेत्ता के लिए ही सम्भव था। विलोमशक्ति के तो वे विशेषज्ञ ही हैं- यों उन्हें भाषा तक कभी नहीं जाना पड़ा है, भाषा ही उन तक आई है । वस्तुतः जिसके पास कथ्य होता है, उसके निकट कथन की तमाम विधाएँ खुद दौड़ी आती हैं। 'मूकमाटी' में वही हुआ है, यानी वर्ण-वैभव में से अर्थ-गौरव के कई दुर्लभ क्षण पलभर में प्रत्यक्ष हुए हैं। असल में क्षर में से अक्षर के तलातल ढूँढ़ निकालने का नाम ही विद्यासागर है। _ 'मूकमाटी' के प्राण पृष्ठ हैं ३९७-३९९, जिनमें कवि ने अ, इ, उ, ऋ, लु' की तरह 'श, स, ष' की अमोघ शक्ति को स्पष्ट किया है। उसके शब्द हैं :
"इस पर भी यदि/औषध की बात पूछते हो,/सुन लो !/तात्कालिक तन-विषयक-रोग ही क्या,/चिरन्तन चेतन-गत रोग भी/जो