________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 135
आचार्य विद्यासागर ने 'माटी' को आराध्य बना कर मनुष्य को ही कथा का आधार बनाया है, पुरुष को नहीं। मनुष्य और पुरुष में अन्तर है। मनुष्य सृष्टि है, पुरुष सृष्ट का गुण । पुरुष मनुष्य का कर्तापन है। मनुष्य में पुरुष होता है, क्योंकि वह सृष्ट भी है सृजक भी, परन्तु जब सृजक का अहंबोध उभरता है और वह अपने सृजन के अस्तित्व, अपनी नश्वरता, अपने माटीपन को भूल जाता है तो वह मनुष्य नहीं रह जाता। सृजन माटी जैसा होना चाहिए, निरन्तर निर्मितियों के बावजूद मूक बने रहने का भाव । रचनाकार इसी को महत्त्व देता है :
"निसर्ग से ही/सृज्-धातु की भाँति/भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा तुमने स्वयं को/जो/निसर्ग किया,/सो
सृजनशील जीवन का/वर्गातीत अपवर्ग हुआ !" (पृ. ४८६) इस प्रकार 'मूकमाटी' इस कर्त्तापन के अहंबोध पर प्रहारक है। इसीलिए हमने कहा है कि 'मूकमाटी' में श्रेयस् के दोनों रूप लालन और ताड़न साथ-साथ मिलते हैं। इस कर्तापन को दूर करते हुए रचनाकार कहता है :
"जितने भी पद हैं/वह विपदाओं के आस्पद हैं, पद-लिप्सा का विषधर वह/भविष्य में भी हमें न सूंघे
बस यही भावना है, विभो !" (पृ. ४३४) मनुष्य की महत्ता के द्योतन में कवि ने आधुनिक समाज की समस्त विकृतियों को चित्रित किया है । धन लिप्सा, शोषण, अनाचार, जाति एवं वर्णभेद, सम्प्रदायबद्धता, आतंकवाद, राजनीतिक पदलिप्सा, भ्रष्टाचार, युद्ध की विभीषिका, अणु आयुधों के आतंक एवं राष्ट्राभिमान की कमी आज के विश्व की समस्याएँ हैं। पूँजी के आधिपत्य एवं कम्युनिष्टों की क्रान्तिदर्शी आक्रान्ता-नीति दोनों का निषेध कवि ने किया है । 'मूकमाटी' में सामाजिक परिवर्तन की ललक है, पर वर्णसंकरी परिवर्तन नहीं, समग्र विलयन की भावना के साथ, जो मिट्टी की भाँति दूसरों को सहन कर सके, वहन कर सके, न कि उनका दहन कर सके । इसलिए 'मूकमाटी' में कंकर नहीं, मिट्टी प्रमुख है, सागर की अपेक्षा कूपजल की प्रमुखता है, राजा और श्रेष्ठी की अपेक्षा कुम्भकार की प्रधानता है। भारतीय आर्ष परम्परा इसी भावना से जुड़ी है जहाँ यम को नचिकेता के समक्ष विनत होना पड़ता है और देवत्व की परिकल्पना विविक्त वनवासियों में की जाती है। राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर स्वामी के ईश्वरत्व का आधार कुलीनता नहीं, सुलीनता है। 'विविक्तदेशसेवित्वं अरतिर्जनसंसदि' के उपासक भारतीय मनीषियों की रचना-परम्परा में 'मूकमाटी' अधुनातन समस्याओं को चिह्नित करती मनुष्य-गाथा है । इस महाकाव्य में लघुता को नमन और उसके लघुत्व में विराटता का दर्शन है । इसलिए नई भंगिमा और नई शैली में प्रस्तुत इस महाकाव्य को मानवता का महाकाव्य और संस्कृति का विश्वकाव्य कहा जा सकता है । दर्शन, भाव, शास्त्रीयता एवं शिल्प के अनूठे प्रयोग तो काव्य-धर्म में स्वत: समाहित हो जाते हैं।
पृ.३.
पयगरचलता है....
---... मनसेमी ।
मएफEAMER