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मूकमाटी-मीमांसा :: 139
द्वारा (पृ. ३७२) पाठकों के समक्ष किया है जिसकी अन्तिम परिणति स्वच्छ एवं वास्तविक समाजवाद के रूप में निबद्ध
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“प्रचार-प्रसार से दूर/प्रशस्त आचार-विचार वालों का/जीवन ही समाजवाद है।
समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से/समाजवादी नहीं बनोगे।" (पृ. ४६१) संक्षेप में, मुझे यही प्रतीत होता है कि कवि का लक्ष्य इस कृति द्वारा समाज को यही उपदेश देना है कि वह मिथ्याचार-शून्य होकर विश्व-बन्धुत्व की भावना का प्रचार-प्रसार करे । मेरी दृष्टि में कवि को इस रचना से अपने लक्ष्य की अभिव्यक्ति में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।
'मूकमाटी' : भारतीय ज्ञान के विवेकपूर्ण पक्ष का उद्घाटन
डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय आभारी हूँ कि आप ने मुझे इस योग्य समझा कि मैं विद्वान् दिगम्बर जैन सन्त आचार्यश्री विद्यासागरजी मुनि द्वारा रचित महाकाव्य 'मूकमाटी' पर कुछ लिखू । पुस्तक के मिलने पर मैंने इसका पारायण किया और दो बार श्री लक्ष्मी चन्द्र जैन का 'प्रस्तवन' पढ़ा । इस पुस्तक पर इससे अच्छी समालोचना कोई और कर सकेगा, इसमें मुझे सन्देह है। इस महाकाव्य के पारायण से किसी भी व्यक्ति को सदाचार और गरिमामय मानवीय जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा मिलेगी और भारतीय संस्कृति पर आस्था पैदा होगी। यह रचना अत्यन्त शिक्षाप्रद है और पाठक को भारतीय ज्ञान के विवेकपूर्ण पक्ष से अवगत कराती है । हमारे देश के शताब्दियों के उच्च चिन्तन और मनन को इसमें प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है । ऐसा चिन्तन काव्य और महाकाव्य की साहित्यिक कोटियों से ऊपर उठ जाता है । निर्धारित कलात्मक सीमाओं से पृथक् होकर यह काव्य मानवीय मर्यादाओं को उजागर करता है । यह महाकाव्य साहित्यिक आलोचना का विषय नहीं, विवेकपूर्ण एवं उदात्त जीवन की आलोचना का विषय है । अस्तु, मैं इस पुस्तक के अध्ययन के उपरान्त मुनिवर को समस्त विनम्रता के साथ ऐसी दिव्य रचना के लिए प्रणाम करता हूँ।
माशा --मसाएगी, चीनला