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मूकमाटी-मीमांसा :: 133 कृतियाँ युगधर्म से जुड़कर तात्कालिकता से प्रभावित नहीं होती। भारतीय समाज जैसा वृक्ष न झंझावाती झटके से उखड़ने वाला है, न तात्कालिक पोषण से पुष्ट होने वाला । उसकी सही तस्वीर और वास्तविक पुष्टि आर्ष काव्यों से ही मिलती है और युगों के बाद तथा युगों तक ऐसी रचनाएँ अपनी क्षमता को प्रदर्शित कर पाई हैं । 'मूकमाटी' इसी परम्परा, इसी प्रवृत्ति और इसी चेतना की नवीनतम परिणति है, जिसका रचनाकार विरक्त संन्यासी ही नहीं, प्राचीन श्रमण संस्कृति का मूर्तिमान् रूप है । 'मूकमाटी' की रचना का प्रयोजन मात्र 'शिवेतरक्षतये' है, जिसे गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में सुरसरि सम सब कर हित होई' के रूप में परखा जा सकता है।
जैन आचार्य विद्यासागर द्वारा प्रणीत 'मूकमाटी' की विवेचना के पूर्व हिन्दी जैन साहित्य की प्रशस्त परम्परा पर इंगिति आवश्यक है । वस्तुत: संस्कृतेतर आर्य भाषाओं के प्राचीन रूप जैन काव्यकारों के ऋणी हैं, क्योंकि आज उन भाषाओं का अस्तित्व जैन कवियों के ललित साहित्य के कारण ही है। पालि, जिसका साहित्यिक स्वरूप बौद्धों द्वारा विकसित हुआ वह ललित साहित्य की भाषा नहीं बन सकी, क्योंकि बौद्ध धर्म प्रतिक्रियात्मक रहा पर संस्कारक जैन धर्म और साहित्य भारतीय संस्कृति का पुरस्कर्ता बना और जैनाचार्यों और उनके अवलम्बियों ने प्राकृत तथा अपभ्रंश की श्रीवृद्धि अपनी रचनाओं से की। 'अमिअं पाउअकब्वं' की उक्ति तक प्राकृत का माधुर्य जैन कवियों के द्वारा निष्पन्न हुआ । अपभ्रंश और प्रारम्भिक हिन्दी में जो कुछ साहित्य कहलाने लायक है, वह जैन साहित्य की देन है । प्रारम्भिक रचनाओं में मुनि रामसिंह की दार्शनिक चिन्तना एक ओर है तो दूसरी ओर फागु और रासक के द्वारा शृंगार की प्रशस्त परम्परा भी जैन कवियों की देन है । स्वयंभू, पुष्पदन्त, जिनचन्द सूरि, विनयचन्द सूरि, जिन पद्मसूरि आदि से लेकर मध्यकाल में बनारसीदास जैन तक जैन साहित्य हिन्दी की प्रमुख धारा के रूप में प्रवाहित हुआ है। आधुनिक युग में जब इस प्रकार की काव्य-परम्पराएँ विलुप्त होने लगी हैं, 'मूकमाटी' का रचनाकार जैन काव्य परम्परा की उस चिन्तनधारा से जुड़ कर उसकी निरन्तरता को भी संकेतित कर रहा है।
___ परम्परा, समकालिकता, दार्शनिकता, आचार्यश्री की विद्वत्ता, महाकाव्य की परम्परागत अवधारणा आदि ऐसे विषय हैं, जिन पर या जिनके परिप्रेक्ष्य में 'मूकमाटी' की बहुविध विवेचना हुई है या हो सकती है । अत: उनका अनुधावन यहाँ अभीष्ट नहीं। वाक्-कायसिद्ध योगी की दार्शनिक चिन्तना अकाट्य है और महाकाव्य की परिधि आज इतनी विस्तृत या विकृत हो चुकी है कि मात्र 'सर्गबन्धो' कह कर किसी काव्य की गरिमा को घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता । प्रश्न यह है कि इस नए वैज्ञानिक युग में एक विरक्त मुनि (जो दुर्लभ श्रेणी में आते हैं) नए समाज को क्या दे रहा है, किस तरह विज्ञान से तालमेल बिठा रहा है और कैसे वह सर्व स्वीकार्य है ?
__मैं फिर तुलसी की ओर ध्यान खींचना चाहूँगा, जिसने 'सब कर हित होई' कह कर 'सर्वजन-हिताय' को प्रमुखता दी । सार्वजनीनता ही शिवेतरक्षति है। यह क्षति' ही तुलसी का 'हित' है। समाज से शिव के इतर की क्षति सर्वजन का हित है । हित भी दो प्रकार से होगा- लालन और ताड़न द्वारा । काव्य श्रेयमार्ग पर चलने वाले का लालन करे, सम्प्रेरण करे और श्रेयमार्ग से उपरत का ताड़न करे, निवारण करे, तभी वह सब कर हित' कर सकता है। शिवत्व की प्रतिष्ठा ही श्रेयस् नहीं है, अशिव का निवारण भी आवश्यक है।
'मूकमाटी' श्रेयस् के इन दोनों रूपों का प्रतिष्ठापक महाकाव्य है । इसलिए जब इस महाकाव्य के वर्ण्य की चर्चा होती है, तो यह एक विशुद्ध आध्यात्मिक कृति प्रतीत होती है । एक ओर कुम्भकार और घट तथा दूसरी ओर श्रेष्ठी, साधु एवं नृपति-दोनों किसी कल्पित ऐतिहासिकता का संकेत देते हैं। ऐसी स्थिति में तमाम पाठक सहजता के साथ कह सकते हैं कि 'मूकमाटी' में जैन दर्शन का अभिनिवेश है । यह अपनी जगह सही भी है लेकिन इसमें एक दोष है-'मूकमाटी, जो एक भावप्रवण कवि की रचना है और कवि केवल साहित्य दर्शन करता है। इसलिए दार्शनिकता