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मानवता का महाकाव्य और संस्कृति का विश्वकाव्य : 'मूकमाटी'
डॉ. लक्ष्मी कान्त पाण्डेय भारतीय साहित्य में आर्ष काव्य की अपनी परम्परा रही है। यह परम्परा प्राचीनतम साहित्य से प्रारम्भ हुई और काव्य-विधान की परिवर्तमान मान्यताओं को स्वीकारती अद्यावधि विद्यमान है । संस्कृति, दर्शन और आध्यात्मिक चेतना से सम्पृक्त आर्ष परम्परा ही साहित्य के युग-चिन्तन एवं औदात्य को प्रकट करती है । अत: ऐसी रचनाएँ कालातीत नहीं, कालजयी होती हैं और साहित्य के उस रूप को प्रस्तुत करती हैं, जो लोकादर्श का प्रतिष्ठापक होता है। समग्र वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, समस्त पुराण, जैन आचार्यों द्वारा उपदिष्ट एवं प्रणीत प्राकृत साहित्य, बाद्धात्रीपटक, विभिन्न भाषाओं में प्रणीत रामायण, रामचरितमानस, आधुनिक युग में गीतांजलि और कामायनी जैसे महाकाव्य मूलत: आर्ष परम्परा के ही अंग हैं । अभिधान एवं उपाख्यान परम्परा-भुक्त हैं, मात्र बहिरंग और सामाजिक प्रकार्य एवं मूल्य नए रूप में आए हैं।
वस्तुत: आर्ष परम्परा है क्या ? 'साहित्य को समाज का दर्पण' मात्र मानने वाले इसका उत्तर नहीं देंगे। साहित्य में समवेत भाव और हित भाव के समंजसन से आर्ष परम्परा सम्भूत है और यह प्रवृत्ति जिस रचना में होगी वह युग-धर्म में जीवित रह कर भी आर्ष ही कही जाएगी। इसे अधिक स्पष्ट करें, तो यह निष्कर्ष निकलता है कि काव्यप्रयोजनों में जो 'शिवेतरक्षतये' है उसको प्रामुख्य प्रदान कर प्रस्तुत प्रत्येक रचना आर्ष काव्य के अन्तर्गत आती है, क्योंकि प्रत्येक युग, समाज और राष्ट्र के चिन्तन में 'शिवेतरक्षतये' की प्रयोजनमूलकता विद्यमान रहती है, परिमाण एवं प्रकृति में वैभिन्न्य के बावजूद ।
हिन्दी साहित्य में जब इसी प्रश्न को उठाया जाता है तो साहित्य की एक विलक्षणता संकेतित होती है। हिन्दी का प्रारम्भिक साहित्य नितान्त ज्ञानात्मक एवं यौगिक संचेतना से अभिमण्डित था और पश्चात् रासो काव्य वीरता एवं शृंगार का समन्वय । भक्तिकाल अवतारवाद की दृढ़ भित्ति बना । इस प्रकार आदि एवं मध्यकाल के पूर्वरूप आर्ष परम्परा के नए आयाम के प्रस्तोता सिद्ध होते हैं। नाथों, सिद्धों और जैनियों के साहित्य की प्रशस्त परम्परा से इसका प्रमाण स्वत: हो जाता है। रीतिकाल या यों कहें कि आदि एवं मध्यकाल के उत्तरवर्ती साहित्य का उपजीव्य मूलतः शृंगार रहा। आधुनिक काल निश्चित रूप से बिखर कर विरचित हुआ और परम्पराओं की अनतिदीर्घता के कारण काल चक्र की गति से प्रवृत्तियों का विकास हुआ। यह वैखरी कालगति का परिणाम है, न कि परम्परा का । यही कारण है कि युग और रचनाकार दोनों में विरोधाभास मिलता है । इसके बावजूद साहित्य में श्रेयस् को प्रेयस् से कम महत्त्व नहीं मिला। यह अलग बात है कि श्रेय एवं प्रेय में विभाजक रेखा आधुनिक साहित्य में बहुत धूमिल हो गई।
वस्तत: हिन्दी का आधनिक साहित्य सांस्कतिक क्षरण के समान्तर स्वच्छ वातावरण के लिए लिखा गया। पाश्चात्य प्रभाव के प्रदूषण से जहाँ समाज की मानसिकता विकृत हो रही थी, वहीं साहित्यिक, सामाजिक पर्यावरण की संरक्षा के प्रयास भी हो रहे थे। भारतीय पुनर्जागरण आन्दोलन इस संरक्षण का ही प्रयास है। साकेत और कामायनी जैसी रचनाएँ इसी परम्परा में संग्रथित हैं। आर्ष परम्परा का यह नव्य रूप सांस्कृतिक विरासत को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में भली प्रकार नाप-तौल कर प्रस्तुत कर रहा था पर ज्यों-ज्यों सामाजिक मूल्यहीनता बढ़ती गई, त्यों-त्यों पश्चिमी विचारधाराएँ ही भारतीय समाज की समस्याओं को समाधानित करने के लिए व्यवहृत होने लगीं, जिससे नया साहित्य प्रभावित हुआ और साहित्य की आर्ष परम्परा नई प्रवृत्तियों के समक्ष संकुचित हो गई।
इसके बावजूद भारतीय संस्कृति के चिन्तकों ने सृजन-कर्म निर्बाध गति से जारी रखा, क्योंकि कालजयी