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________________ धर्म-दर्शन एवं अध्यात्म का सारतत्त्व : 'मूकमाटी' डॉ. महेन्द्र नाथ राय 'मूकमाटी' धर्म-दर्शन एवं अध्यात्म के सारतत्त्व को एक सूत्र में पिरोकर एक महान् रचनात्मक दायित्व के प्रति पूरी तरह समर्पित सन्त साहित्यकार आचार्य विद्यासागरजी की ऐतिहासिक महत्त्व की काव्य कृति है । भाव-भाषा एवं प्रतिपाद्य की दृष्टि से यह सर्वथा उदात्त है। 'मूकमाटी' शीर्षक सोद्देश्य एवं साभिप्राय है। मूकमाटी शब्द में सुरक्षित रागात्मकता एवं वत्सलता को उद्घाटित करने के प्रयत्न में आचार्यश्री को आशातीत सफलता मिली है । कुशल कुम्भकार के हाथों यह माटी पड़ कर पूजा का मंगल घट बनती है और अपनी सार्थकता का प्रकाशन करती है। पत्थर तो बहुत होते हैं लेकिन जो सुजान कारीगर के हाथ लगते हैं, वे मनोरम और दिव्य मूर्ति में परिवर्तित होकर सबके लिए पूज्य बन जाते हैं। लोग मूर्ति के समक्ष प्रणत होकर एक तरह से उसके निर्माता के समक्ष ही माथा टेकते हैं। पत्थर का अहंकार सर्वथा मृषा है कि लोग उसके समक्ष अपना सिर झुकाते हैं । वस्तुत: यह तो उसके निर्माता की ही साधना का सुपरिणाम है कि तराश-छाँट कर रास्ते में पड़े एक अनाम पत्थर को उसने मूर्ति का रूप दिया और उसमें प्रभुत्व की प्राण-प्रतिष्ठा की । धन्य हैं सन्त विद्यासागर जी जिन्होंने मूकमाटी की व्यथा-कथा को अपने नवनीत से भी कोमल एवं प्रकृतितः द्रवणशील सन्तजनोचित मानस का करुण साहचर्य प्रदान कर स्वरित किया । आचार्य विद्यासागर जी ने ग्रन्थारम्भ में 'मूकमाटी' के रचनात्मक अभिप्रेत की विविक्षा में जो लिखा है, वह द्रष्टव्य है : “ऐसे ही कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है और यह वह सृजन है जिसका सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर शृंगार रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है;... जिसमें शब्द को अर्थ मिला है और अर्थ को परमार्थ;... जिसके प्रति प्रसंग पंक्ति से पुरुष को प्रेरणा मिलती है - सुसुप्त चैतन्य - शक्ति को जाग्रत करने की; जिसने वर्ण-जाति-कुल आदि व्यवस्था विधान को नकारा नहीं है परन्तु जन्म के बाद आचरण के अनुरूप, उनमें उच्च-नीचता रूप परिवर्तन को स्वीकारा है;... जिसने शुद्ध - सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है; जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है'' और जिसका नामकरण हुआ है मूक- माटी" । उपर्युक्त पंक्तियाँ रचनाकार के काव्य - प्रयोजन को स्पष्ट अभिव्यक्ति देती हैं। साहित्य के स्वरूप और अभिप्राय को लेकर आचार्य श्री की एक सुनिश्चित, उन्नत अवधारणा रही है और कहना न होगा कि इस काव्यकृति में रचनात्मक स्तर पर उसे मूर्तिमान होने का भरपूर अवसर मिला है । 'मूकमाटी' चार उपशीर्षकों में विभाजित लगभग पाँच सौ पृष्ठों का बोध एवं विचारधारा की दृष्टि से बहु आयामी ग्रन्थ है | कहते हैं सरस्वती की जवानी कविता और बुढ़ापा दर्शन है । इस काव्यकृति में दर्शनप्रभावी है, विचारधारा प्रबल है । यहाँ भावोच्छ्वास की अभिव्यक्ति कम है, सुचिन्तित दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति अधिक । इसमें प्राकृतजन का गुणगान नहीं है बल्कि प्रतीकात्मक ढंग से शाश्वत और सार्वभौम पारमार्थिक तत्त्वों का दिग्दर्शन है। वैचारिक प्रौढ़ता, तार्किक निष्पत्ति और जीवन-जगत् के प्रति एक स्वस्थ एवं परम उदात्त दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति की संज्ञा है ‘मूकमाटी' । सामान्य काव्यरसिकों का अवधान निम्नांकित पंक्तियाँ भले ही अपनी ओर केन्द्रित न करें किन्तु सुविज्ञ और सुविचारित जनों को ये निश्चित रूप से बाँधेगी : " सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है / संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करनेवाला भले ही / तुरन्त सन्त- संयत / बने या न बने इसमें कोई नियम नहीं है / किन्तु वह / सन्तोषी अवश्य बनता है ।" (पृ. ३५२)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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