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130 :: मूकमाटी-मीमांसा
की चाह होता है । पर पहले की दुरूहता के कारण कम लोग साहस कर पाते हैं शाश्वत सत्य तक पहुँचने का । पर जो साहस कर जाते हैं, वे ऐसे रम जाते हैं कि कभी स्वप्न में भी नहीं सोचते इस छलावे की दुनिया में आने की, क्योंकि उसके बाद और कुछ पाने को शेष नहीं रह जाता। शाश्वत सत्य त्रैकालिक और अन्तिम सत्य होता है। इसीलिए 'मूकमाटी'कार ने घृत के माध्यम से इस तथ्य को रखा है :
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे प्राप्त होने के बाद,/यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है तुम ही बताओ !/दुग्ध का विकास होता है/फिर अन्त में घृत का विलास होता है,/किन्तु/घृत का दुग्ध के रूप में
लौट आना सम्भव है क्या ?/तुम ही बताओ!" (पृ. ४८६-४८७) चूँकि, रचना शाश्वत सत्य को रखने के लिए, दार्शनिक तथ्य प्रस्तुत करने के लिए संकल्पित है, इसीलिए प्रारम्भ में शाश्वत सत्य की तरह ही दुरूह लगती है, कठिन लगती है । पर एक बार पाठक जब रचना से जुड़ जाता है तो वह शाश्वत सत्य की तरह ही निरन्तर उसमें सराबोर बना रहता है। इसीलिए 'मूकमाटी' को मैं समझता हूँ कि शाश्वत काव्य के रूप में स्वीकारना समीचीन है। एक बात ज़रूर है कि रचना के पात्र काल्पनिक हैं, पर रचना संवाद शैली में है, यदि रचना के पात्र कुछ पौराणिक, कुछ ऐतिहासिक होते, जिनके संस्कार पाठक के मन में पहले से होते तो रचना कुछ और सरल हो जाती।
MARWARI
पृ. ३३१
लो, अतिधिकी अंजुलिखुलपाती है..
----- रसदार या
खा-सूखा सबसमाग