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मूकमाटी-मीमांसा :: 129
पाप-पाखण्ड करते हैं।/प्रभु से प्रार्थना है कि/अपद ही बने रहें हम ! जितने भी पद हैं/वह विपदाओं के आस्पद हैं।"(पृ. ४३४)
और भी:
"चोर इतने पापी नहीं होते/जितने कि/चोरों को पैदा करने वाले । तुम स्वयं चोर हो/चोरों को पालते हो/और/चोरों के जनक भी। सज्जन अपने दोषों को/कभी छुपाते नहीं,
छुपाने का भाव भी नहीं लाते मन में/प्रत्युत उद्घाटित करते हैं उन्हें।"(पृ. ४६८) कुछ लोगों ने कहा कि समझ में नहीं आता कि 'मूकमाटी' काव्य है या शास्त्र । वास्तव में सम्पादक, समालोचक या साहित्यकार का प्रयोजन अन्तर्द्वन्द्व को उपस्थित करना नहीं है, गुत्थी को उलझाना नहीं है । इनका प्रयोजन होता है गुत्थी के सुलझाने में और सुलझा कर समाधान की ओर संकेतन करने में । यदि वे ऐसा नहीं करते तो वे साहित्यकार, सम्पादक या समालोचक होने के अपने दावे को छोटा कर रहे हैं। क्यों नहीं सीधे कहते वे कि यह शास्त्र है, इसे काव्य मत मानो ; या फिर यह काव्य है, शास्त्र नहीं। मुझे लगता है वे खुद उलझे हैं और अपनी इस उलझन का हिस्सा बनाना चाहते हैं सभी पाठकों को। पाठकों को उलझाना अन्याय है, जो उनके वह होने का (अर्थात् सम्पादक, साहित्यकार या समालोचक होने का) प्रयोजन नहीं है अत: ऐसा करने का उन्हें अधिकार भी नहीं है।
व्यक्ति जब किसी कृति की समीक्षा के लिए बैठता है तो एक प्रश्न उसके मन में निरन्तर कौंधता है कि विवेच्यकृति खण्ड काव्य है या महाकाव्य या केवल काव्य । महाकाव्य को सबसे बड़ा काव्य मानते हैं प्रायः सभी काव्यशास्त्री, पर जिन आधारों पर महाकाव्य को वे तौलते हैं, यथा-सर्गबद्ध हो, विशाल परिमाण हो, प्राकृतिक दृश्य से प्रारम्भ हो, मुझे लगता है कि इन आधारों पर किसी काव्य को तौलने की दृष्टि सम्यक् दृष्टि नहीं है, क्योंकि किसी भी रचना की जो सबसे बड़ी सार्थकता है, वह इसमें है कि वह रचना कितनी अच्छी तरह, कितने सबल ढंग से अपने काव्यार्थ को रख पा रही है। इसलिए इन आधारों पर हम इस 'मूकमाटी' का भी मूल्यांकन करेंगे तो हम वास्तव में काव्य को सही ढंग से मूल्यांकित नहीं कर पाएँगे । इसलिए हमें काव्यार्थ को केन्द्र में रखकर किसी भी रचना का मूल्यांकन करना चाहिए। जिस काव्यार्थ को रचनाकार ने अपनी रचना का विषय बनाया है, वह काव्यार्थ आज के जनमानस के लिए कितने महत्त्व का है, उसका प्रस्तुतीकरण कितने सुदृढ़ ढंग से हुआ है जो माध्यम उसे रखने के लिए लिए गए हैं, वे कितने सटीक हैं, इन बातों पर यदि रचना का मूल्यांकन होता है तो मुझे लगता है कि रचना का वह सही मूल्यांकन है। 'मूकमाटी' को ही लें, रचनाकार ने जिस जगत् को, जिस नश्वरता को अपनी रचना का विषय बनाया है, वह जगत् हर जीवधारी के लिए नश्वर है । ऐसा नहीं कि वह कुछ के लिए शाश्वत हो और कुछ के लिए क्षणिक । इसीलिए रचनाकार ने हर जीव के हितकारी विषय को अपनी कृति का विवेच्य बनाया है, और उस विषय को रखने में वह काफ़ी हद तक सफल रहा है । एक बात ज़रूर बार-बार लगती है कि रचना की विषयवस्तु का केन्द्र किसी बौद्धिक चेता का विषय अधिक है, किसी सहृदय का कम । मैं बार-बार यह मानता हूँ कि किसी भी साहित्यिक कृति का केन्द्र उसका काव्यार्थ होता है। काव्यार्थ जितना बड़ा होता है कृति उतनी ही बड़ी होती है।
___ रचना की कथावस्तु कोई प्रणय-कथा नहीं, कोई पुरा कथा नहीं, कोई ऐतिहासिक जल्प नहीं, कोई पौराणिक कथा नहीं। शाश्वत कथा है । शाश्वत कथा निरन्तर अपने में शाश्वत सत्य को सँजोए रहती है, शाश्वत सत्य पहले जब तक कि वह अनुभूति का हिस्सा नहीं बनता, कठिन दुरूह ज़रूर लगता है, पर वास्तव में वह सबका प्रेय होता है, सब