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________________ 128 :: मूकमाटी-मीमांसा जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है/मति जैसी, अग्रिम गति मिलती जाती "मिलती जाती "/और यही हुआ है युगों-युगों से/भवों-भवों से !" (पृ. ८) रचना को ध्यान से पढ़ने पर निरन्तर यह प्रतीति होती रहती है कि रचनाकार बहुत ही दृढ़ संकल्पी है । वह झुकता नहीं किसी भी झुकाव के सामने, और नहीं जीता है अनिश्चय के अन्तर्द्वन्द्व को, क्योंकि उसकी दृष्टि बहुत साफ़ व स्पष्ट है: “नियम-संयम के सम्मुख/असंयम ही नहीं, यम भी/अपने घुटने टेक देता है, हार स्वीकारना होती है/नभश्चरों सुरासुरों को !” (पृ. २६९) आज गणतन्त्र की जो धज्जियाँ उड़ रहीं हैं वे 'मूकमाटी'कार को भी बेचैन किए बिना नहीं रहतीं । समाज में व्याप्त बुराइयों, कुरीतियों, विषमताओं को वह केवल तटस्थ होकर देखता भर नहीं रहता, अपितु निर्द्वन्द्व होकर उन पर टिप्पणी भी करता है : "प्राय: अपराधी-जन बच जाते/निरपराध ही पिट जाते, और उन्हें/पीटते-पीटते टूटती हम ।/इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ? यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है/या/मनमाना 'तन्त्र' है !" (पृ. २७१) यद्यपि रचनाकार समाज में व्याप्त उद्दण्डता की शुद्धि के लिए दण्ड विधान को श्रेयस्कर मानता है पर वह किसी भी अपराध के लिए मृत्युदण्ड को समुचित नहीं मानता । वह मानता है कि मृत्युदण्ड के बाद व्यक्ति के सुधार के अवसर ही समाप्त हो जाते हैं और दण्ड का मूल प्रयोजन व्यक्ति के आचरण में जो खामियाँ आ गई हैं, उन्हें निकालना है, व्यक्ति की समाप्ति नहीं : "किसी को काटना नहीं,/किसी का प्राणान्त नहीं करना मात्र शत्रु को शह देना है ।/उद्दण्डता दूर करने हेतु दण्ड-संहिता होती है/माना,/दण्डों में अन्तिम दण्ड प्राणदण्ड होता है ।/प्राणदण्ड से/औरों को तो शिक्षा मिलती है, परन्तु/जिसे दण्ड दिया जा रहा है/उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त । दण्ड संहिता इसको माने या न माने,/क्रूर अपराधी को क्रूरता से दण्डित करना भी/एक अपराध है, न्याय-मार्ग से स्खलित होना है।" (पृ. ४३०-४३१) आज के समाज में जितने भी लोग बड़े-बड़े पदों पर आरूढ़ हैं, वे बाहर से कुछ और हैं तथा अन्दर से कुछ और; बाहर से वे बड़े दिखते हैं पर भीतर से वे घृणित से घृणित काम करने से भी उकताते नहीं। इसीलिए रचनाकार चाहता है कि वह भी ऐसी श्री (धन) से दूर रहे, क्योंकि यदि वह ऐसी श्री से दूर रहेगा तो कम से कम उसे पाप का पाखण्ड तो नहीं करना होगा : “पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु/पर को पद-दलित करते हैं,
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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