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________________ :: 127 मूकमाटी-मीमांसा एक जैसी नहीं होती, कहीं वह बहुत सरल और सहज हो जाती है तो कहीं कम । इसीलिए उसे पढ़ने की निरन्तर ज़रूरत बनी रहती है। रचना की सार्थकता भी इसी में है कि वह जितनी बार पढ़ी जाय, उतनी बार एक और अर्थ दे, एक नया अर्थ दे, उसकी यह अर्थ-उद्घाटन की शक्ति उसमें निरन्तर बनी रहे। मैं समझता हूँ यह 'मूकमाटी' में है । इसे सायास और जटिल न मानने का एक कारण मुझे और समझ में आता है, वह है इसमें प्रतीकस्थों के प्रयोग की अधिकता । प्रतीकस्थ व्याख्येय होते हैं, सहज होते हैं । उदाहरण के लिए 'मूकमाटी' के एक प्रयोग को लीजिए : " कम बलवाले ही / कम्बलवाले होते हैं ।" (पृ. ९२ ) इस प्रकार इस प्रयोग में रचनाकार ने कम्बल प्रतीकस्थ का प्रयोग किया है। कम्बल से अभिप्राय सिर्फ कम्बल से नहीं है, कम्बल से अभिप्राय है वस्त्र मात्र से । मान लीजिए कि शीत है और शीत को बचाने के लिए जिन लोगों को साधन की ज़रूरत पड़ती है, स्वयं वे शीत से लड़ने में समर्थ नहीं होते, वे लोग कमज़ोर होते हैं अपेक्षाकृत उन लोगों के जिन्हें कटकटाती शीत से अपने को बचाने के लिए एक तिनके की भी ज़रूरत नहीं होती। उनकी इच्छा-शक्ति इतनी शक्तिवती होती है कि शीत स्वयं उनके सामने आकर घुटने टेक देती है । 'मूकमाटी' नाम स्वयं में प्रतीकात्मक है। 'मूकमाटी' की प्रतीकात्मकता अधिकांशत: सामाजिक यथार्थ और ध्रुव सत्यों को सामने रखती है। इसलिए रचनाकार ने खण्डों के नाम भी 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ, 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन, 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' प्रतीक रूप ही दिया है। उदाहरण के लिए दूसरे खण्ड के नाम को लीजिए- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' - इस नामकरण के माध्यम से भी रचनाकार ने वास्तविक जागतिकता रूप प्रतीकार्थ को सामने रखा है । आज लोग शब्द के / वस्तु के वास्तविक अर्थ को नहीं समझते- नहीं लेते। इसलिए वे वस्तु के वास्तविक अर्थ से विमुख हैं । और पहले तो शोध ही नहीं हो रहे तथा जो हो भी रहे हैं, वे वास्तविक अर्थ से कहीं दूर हैं। जबकि शोध का प्रयोजन इसी वास्तविक अर्थ के उद्घाटन के लिए होना चाहिए, वह भी आज नहीं हो रहा है- यह परिस्थिति रचनाकार को अकुलाहट दे रही है । आज का आदमी भी वस्तु से भिन्न ज्ञान को सम्यक् ज्ञान मान रहा है और सम्यग्ज्ञान जो है, वह तद्रूप आचरण नहीं कर रहा है और चाहना कर रहा है मुक्ति की । कैसी विडम्बना है इस संसारी जीवन की ! रचना मानवीय जीवन से जुड़े तमाम सारे सांसारिक प्रश्नों के दार्शनिक समाधानों को प्रस्तुत करती है। निम्न पंक्तियों में रचनाकार संसार के परिणमनशील स्वभाव को जल की धारा के माध्यम से रखता है । जल की धारा का धूल में जा दलदल रूप में, नीम की जड़ में कटुता रूप में, सागर में लवणाकार रूप में, विषधर मुख में विष / हाला रूप में और स्वाति नक्षत्र में शुक्तिका में जा मुक्तिका के रूप में विभिन्नाकार होना, इस जीव के पर्यायों के परिणमन को सीधे-सीधे रेखांकित करता है । सहज प्रतीक व्यवस्था की यह श्रृंखला निश्चय ही अनिर्वचनीय हो जाती है : - “उजली - उजली जल की धारा / बादलों से झरती है धरा-धूल आ धूमिल हो / दल-दल में बदल जाती है । वही धारा यदि / नीम की जड़ों में जा मिलती / कटुता में ढलती है; सागर में जा गिरती / लवणाकर कहलाती है / वही धारा, बेटा ! विषधर मुख में जा / विष-हाला में ढलती है; सागरीय शुक्तिका में गिरती, / यदि स्वाति का काल हो, मुक्तिका बन कर / झिलमिलाती बेटा, / वही जलीय सत्ता !
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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