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________________ 'मूकमाटी' : एक शाश्वत काव्य प्रो. (डॉ.) वृषभ प्रसाद जैन इस आलेख के प्रारम्भ में ही मैं कुछ बातें साफ़ करना चाहता हूँ। जैसे मैं कोई समीक्षक नहीं हूँ और न समीक्षक होने की हामी भरता हूँ, न मैं साहित्य के सम्बन्ध में बात करने वाला कोई बहुत बड़ा अधिकारी हूँ और न अपने को अधिकारी मानता ही हूँ, पर एक बात ज़रूर है कि मैं साहित्यिक कृतियों को पढ़ता ज़रूर हूँ, साहित्य का अध्येता ज़रूर हूँ, रचनाओं को पढ़ने की आदत मुझमें ज़रूर है । इसी रचनाओं को पढ़ने की आदत के तहत साहित्य को समझने की कोशिश भी निरन्तर करता रहता हूँ । इसी प्रकार की एक कोशिश 'मूकमाटी' को समझने की भी मैंने की है। 'मूकमाटी' को जहाँ तक मैं अभी समझ पाया हूँ, उसको रखने की कोशिश मैं अपने इस आलेख में करूँगा। पर अभी इसके बहुत सारे भाग को मैं गतिक्रम में बैठा नहीं पाया हूँ, इसलिए इसको समझने की गुंजाइश अभी और शेष है। दूसरी सबसे ज़रूरी बात है कि मैं आचार्य विद्यासागरजी की बात नहीं करना चाहता, क्योंकि उनकी समीक्षा करना मेरे वश की बात नहीं, मेरे अधिकार की बात भी नहीं। मैं बात करना चाहता हूँ 'मूकमाटी' के रचनाकार की, 'मूकमाटी' की रचना-प्रक्रिया की, 'मूकमाटी' रचना की। इसलिए एक बात बहुत साफ़ है कि आचार्य विद्यासागर में यद्यपि अनन्त रूप हैं, पर दो रूप प्रमुख रूप से दिख रहे हैं-एक है उनका आचार्यत्व रूप और दूसरा 'मूकमाटी' कृति के कृतिकार का । प्रस्तुत समीक्षा में लक्ष्य है कृति, कृतिकार, कृति की प्रक्रिया। कुछ लोगों को यदि समीक्षा के नाम पर कृति भेज दी जाए तो वे लोग अपने को समीक्षक मान बैठते हैं और समझते हैं कि समीक्षा के बहाने उन्हें कुछ भी खींचातानी करने का अधिकार मिल गया है और इसी समीक्षा के बहाने वे कृति में दोष देखने लग जाते हैं। लोगों ने समीक्षा के नाम पर ऐसा करने की कोशिश यदि की है तो आप समझ लीजिए कि वह समीक्षा नहीं है । और समीक्षा दोषान्वेषण नहीं है, छिद्रान्वेषण नहीं है। समीक्षा होती है कृति के छिपे हुए अर्थों के उद्घाटन के लिए, समीक्षा होती है कृतिकार की कृति निर्माण-प्रक्रिया को और सजग बनाने के लिए । मैं इन दोनों बातों का पूरी तरह ध्यान रखने की कोशिश करूँगा अपने इस आलेख में । ___ एक टिप्पणी के साथ मैं अपनी बात प्रारम्भ कर रहा हूँ कि कई जगह लगता है कि 'मूकमाटी' का रचनाकार आचार्य विद्यासागर से अलग नहीं हो पाया है, क्योंकि वह अपनी रचना में अनेक जगह सीधा उपदेशक दिखता है, उसे अलग होना चाहिए था। साहित्य सीधे-सीधे कथ्य को नहीं कहता जबकि उपदेशक कहता है, साहित्य अपने साधनों माध्यमों के माध्यम से कथ्य की ओर संकेत भर करा देता है, जिससे कथ्य अपने आप सामने आ जाता है पाठक के । जो रचनाकार अपने इस कथ्य की ओर संकेतन कराने में जितना कुशल होता है वह रचनाकार उतना बड़ा होता है। पर इस टिप्पणी का मतलब यह भी नहीं लेना चाहिए कि 'मूकमाटी'कार ने कहीं भी कथ्य की ओर संकेतन नहीं कराया है, अनेकत्र वह बड़े-बड़े सिद्धहस्त रचनाकारों के द्वारा कराए जाने वाले संकेतन से भी गहरा संकेतन कराता है । निम्न सन्दर्भ को ही लें: "अमीरों की नहीं/गरीबों की बात है;/कोठी की नहीं/कुटिया की बात है जो वर्षा-काल में/थोड़ी-सी वर्षा में/टप-टप करती है और उस टपकाव से/धरती में छेद पड़ते हैं,/फिर "तो""/इस जीवन-भर रोना ही रोना हुआ है/दीन-हीन इन आँखों से/धाराप्रवाह अश्रु-धारा बह /इन गालों पर पड़ी है/ऐसी दशा में/गालों का सछिद्र होना
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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