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124 :: मूकमाटी-मीमांसा
तथा मौलिक बिम्ब प्रस्तुत किए हैं। कवि कहता है कि मात्र उच्चारण ही 'शब्द' है, शब्द का सम्पूर्ण अर्थ समझना 'बोध' है और इसी बोध को आचरण में उतारना 'शोध' है। कवि कहता है :
“आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-घौव्य है
और/है यानी चिर-सत्/यही सत्य है, यही तथ्य'""!" (पृ. १८५) तीसरे खण्ड में माटी की विकास-कथा है । माटी के साधारण से दिखनेवाले असाधारण रूप को कवि ने चित्रित किया है। कवि का एक अत्यन्त आशावादी स्वर यहाँ व्यक्त हुआ है :
"नया मंगल तो नया सूरज/नया जंगल तो नयी भू-रज नयी मिति तो नयी मति/नयी चिति तो नयी यति नयी दशा तो नयी दिशा/नहीं मृषा तो नयी यशा
नयी क्षुधा तो नयी तृषा/नयी सुधा तो निरामिषा।" (पृ. २६३) कुम्भ कहता है :
"जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में/निरन्तर साधना की यात्रा/भेद से अभेद की ओर
वेद से अवेद की ओर/बढ़ती है,बढ़नी ही चाहिए।" (पृ. २६७) चतुर्थ खण्ड के विस्तृत फलक पर कई कथाप्रसंगों के माध्यम से कवि ने अपनी बात कही है। कुम्भ कई दिन तक तपता है । कुम्भकार अवे के पास आता है और पके कुम्भ को बाहर निकालता है । इसमें सामाजिक दायित्वबोध
भी है।
कवि कहता है:
“बन्धन रूप तन/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे/प्राप्त होने के बाद,
यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है/तुम ही बताओ !" (पृ. ४८६-४८७) यह कृति हिन्दी साहित्य के लिए एक मौलिक देन है । लोक-जीवन को प्रेरित करने के लिए इसमें ऐसा जीवन दर्शन है कि जो अत्याधुनिक जीवन के लिए भी प्रासंगिक कहा जा सकता है । यह आधुनिक जीवन का एक अमर काव्य है। इसमें आध्यात्मिक चिन्तन सुन्दर काव्य शिल्प के माध्यम से व्यक्त हुआ है।
निरंतर प्रयास
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स्थानमनट