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मूकमाटी-मीमांसा :: 123 सार्थक जीवन में तब/स्वरातीत सरगम झरती है !/समझी बात, बेटा ?"
(पृ. ९) इसी माटी ने अपने को पतित मान, लघुतम माना है, इसीलिए वह प्रभु के महत्त्व को पहचान पाई है । असत्य की उसने सही पहचान कर वास्तविकता को जाना और महानता की ऊँचाइयों को अपने आप में समेटे बाहर से सामान्य रूप ही धारण किए रही।
___ कवि ने माटी का कई जगह मानवीकरण भी किया है । धरा और माटी का मानवीकरण ही उन्हें मानवी संवादों के लिए प्रेरित करता है । माटी वास्तविकता के प्रतीक रूप में चित्रित की गई है । माटी किसी पर आच्छादित नहीं होती फिर भी उसका आभार हम सब स्वीकार करते हैं । यह माटी स्वाभाविक रूप से धरा के अंक में सोती है। इस नायिका माटी के लिए तो हर ऋतु ही बसन्त है।
इस महाकाव्य में ऐसे भी स्थल हैं जहाँ लेखक जितना सन्त है उतना ही कवि है । ऐसे स्थलों पर यह कहना कठिन हो जाता है कि यहाँ काव्य की छटा अधिक है या अध्यात्म की, यथा :
"कर्मों का संश्लेषण होना,/आत्मा से फिर उनका/स्व-पर कारणवश विश्लेषण होना/ये दोनों कार्य/आत्मा की ही/ममता-समता-परिणति पर
आधारित हैं।" (पृ. १५-१६) धरती को भले ही निद्रा घेर ले, पर माटी को निद्रा छूती तक नहीं। इसका नायक कुम्भकार है, जो एक कुशल शिल्पी है। उसका शिल्प बिखरी माटी को अनेकानेक रूप प्रदान करता है। इसी माटी की मृदुता में उसकी कुदाली भी खो जाती है, यथा :
"माटी की मृदुता में/खोई जा रही है कुदाली!
क्या माटी की दया ने/कुदाली की अदया बुलाई है ?" (पृ. २९) प्रकृति के विभिन्न बिम्बों के माध्यम से, तात्त्विक रूप से इस महाकाव्य की कथा का ताना-बाना बुना गया है। इसकी भावात्मक कथावस्तु ने इस काव्य को अन्यतम गरिमा प्रदान की है। दर्शन व चिन्तन के प्रेरणादायी प्रसंग तथा सूक्तियाँ इसमें कई स्थलों पर हैं।
माटी की विभिन्न अवस्थाओं का कवि चित्रण करता चला जाता है। प्रथम खण्ड में उसने परिशोधन की क्रिया को अभिव्यक्ति प्रदान की है। माटी मिली-जुली अवस्था में है। कुम्भकार मंगल घट को सार्थक रूप प्रदान करने के लिए माटी से कंकरों को हटा देता है । वह वर्णसंकर से मृदु माटी के रूप में अपनी शुद्ध दशा प्राप्त करती है। माटी कहती है :
“सल्लेखना, यानी/काय और कषाय को/कृश करना होता है, बेटा ! काया को कृश करने से/कषाय का दम घुटता है/ "घुटना ही चाहिए और/काया को मिटाना नहीं/मिटती-काया में/मिलती-माया में म्लान-मुखी और मुदित-मुखी/नहीं होना ही/सही सल्लेखना है, अन्यथा
आतम का धन लुटता है, बेटा!" (पृ.८७) प्रथम खण्ड के परिचय के पश्चात् द्वितीय खण्ड से कवि की पकड़ मज़बूत होती जाती है । नव रस यहाँ परिभाषित हुए हैं। संगीत की प्रकृति का प्रतिपादन भी हुआ है । ऋतुओं की अभिव्यक्ति में कवि ने चमत्कारपूर्ण मोहक