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122 :: मूकमाटी-मीमांसा
___ कई स्थलों पर सामाजिक दायित्वबोध के भी कवि ने दर्शन कराए हैं। कवि ने उपादान की ही नहीं बल्कि निमित्त की भी महत्ता इस महाकाव्य में प्रस्तुत की है । इस कृति में निमित्त कारण के रूप में कुम्भकार कार्यरत है। परन्तु उसके सिवा भी अन्य निमित्त हैं, यथा-आलोक, चक्र, चक्र-भ्रमण हेतु समुचित दण्ड, धरती में गड़ी निष्कम्प कील तथा डोर।
माटी के इस मौन व्रत में कितनी ही नई-पुरानी भाषाएँ छिपी हैं। उन सभी भाषाओं को विभिन्न बिम्बों के द्वारा कवि ने विभिन्न आयामों के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है । माटी एक बन्धन में आबद्ध हो चुकी है । उसी बन्धन के विभिन्न भावों को कवि ने अति प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है । उसके विचारों ने न तो काव्यशिल्प को ही दबाया है और न ही इस काव्य के शिल्प ने कवि के विचारों को । सृष्टि सर्जन ईश्वर नहीं करता। सर्जन का कार्य तो स्वयं भू है। प्रकृति स्वयं ही अपने संकल्प से अपना सर्जन करती चलती है। माटी का लघुतम रूप ही उसका महानतम रूप है।
सन्त ने अपने आध्यात्मिक विचारों को अत्यन्त सफल रूप से इस काव्य के माध्यम से हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है । माटी के इस मौन व्रत में चिरन्तन सृष्टि का रहस्य छिपा हुआ है । काव्य के अन्त में तो स्वयं आतंकवाद पराजित होकर कहता है : ।
"हे स्वामिन् !/समग्र संसार ही/दुःख से भरपूर है, यहाँ सुख है, पर वैषयिक
और वह भी क्षणिक ! यह तोअनुभूत हुआ हमें/परन्तु/अक्षय सुख पर विश्वास हो नहीं रहा है/हाँ ! हाँ !! यदि/अविनश्वर सुख पाने के बाद आप स्वयं/उस सुख को हमें दिखा सको या/उस विषय में अपना अनुभव बता सको/"तो/सम्भव है हम भी आश्वस्त हो
आप जैसी साधना को/जीवन में अपना सकें।" (पृ. ४८४-४८५) 'मूकमाटी' महाकाव्य उस माटी की गौरवगाथा है जिसके रूप अनेक तथा असीम हैं । यह माटी हम सबकी माँ है। इस माँ से हमारे जैसे न जाने कितने कण समय-समय पर उत्पन्न होकर इसी माटी में समाते रहे हैं। इसीलिए कवि कहता है :
और सुनो,/विलम्ब मत करो/पद दो,पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ.५) - इस महाकाव्य की एक और विलक्षणता है, और वह है इसके संवाद । इन संवादों से महाकाव्य में नाटकीयता की छटा आ गई है। धरा और माटी का संवाद लगातार चलता है । धरा कहती है :
"सत्ता शाश्वत होती है, बेटा !/प्रति सत्ता में होती हैं अनगिन सम्भावनायें/उत्थान-पतन की,/खसखस के दाने-सा
बहुत छोटा होता है/बड़ का बीज वह !" (पृ. ७) आगे वह कहती है :
"...जीवन का/आस्था से वास्ता होने पर/रास्ता स्वयं शास्ता होकर सम्बोधित करता साधक को/साथी बन साथ देता है आस्था के तारों पर ही/साधना आस्था की अंगुलियाँ हैं/चलती साधक की