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मूकमाटी-मीमांसा :: 121
प्रथम खण्ड में कवि ने माटी की प्राथमिक दशा के परिशोधन की प्रक्रिया को व्यक्त किया है । दूसरे खण्ड में कवि ने साहित्य-बोध को अंकित कर नव रसों को परिभाषित किया है । यहाँ उसने संगीत की आन्तरिक प्रकृति का प्रतिपादन भी किया है। तीसरे खण्ड में कवि ने लोक-कल्याण की कामना से पुण्य का उपार्जन किया है। चतुर्थ खण्ड में अग्नि-परीक्षा है । बार-बार कवि ने कुम्भकार व माटी के संवाद को व्यक्त किया है।
__ माटी है, इसलिए उसके अभाव का तो प्रश्न ही नहीं उठता। माटी के अस्तित्व को कितने ही आयामों पर कवि ने प्रस्तुत किया है । इस काव्य की वैचारिक पृष्ठभूमि अध्यात्म की है और इसका शिल्प पूर्णरूपेण उत्तम काव्य का है। यह महाकाव्य अध्यात्म व काव्य का अद्भुत सन्तुलन है । माटी को अपनी माता मान कवि ने अपने प्रेम को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है. यथ
"बाहरी दृष्टि से/और/बाहरी सृष्टि से/अछूता-सा कुछ भीतरी जगत् को/छूता-सा लगा/अपूर्व अश्रुतपूर्व
यह मार्मिक कथन है, माँ !" (पृ. १५) माटी का गुण है धारण करना व सहन करना । कवि ने माटी की व्यथा की मार्मिकता को बड़े ही सहज ढंग से प्रस्तुत किया है । कविता की अत्यन्त सहज पंक्तियों में आचार्यश्री का चिन्तन बार-बार मुखरित हुआ है। इसलिए यह कहना कठिन हो जाता है कि उनके कवित्व में आचार्यत्व अधिक है या आचार्यत्व में कवित्व ?
यह वह माटी है जिसे गोड़ा जा सकता है, कुचला जा सकता है। पानी के गिरते ही यह नरम पड़ जाती है पर इसकी शाश्वत शक्ति के समक्ष न तो इसे रौंदनेवाले ही टिक सके हैं और न ही कुचलनेवाले । माटी तो स्वयं एक शाश्वत सत्य है । उसका कब निर्माण हुआ ? कैसे निर्माण हुआ ? इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दे सकता । इन सन्त कवि ने उस माटी की भाषा को सुना अपने आध्यात्मिक कानों से । कवि अनुभूति को उसके शब्दों के माध्यम से मात्र हम जान सकते हैं परन्तु उसकी अनुभूति से सामंजस्य कर कवि के उस भाव धरातल पर तो कोई नहीं पहुंच सकता है।
माटी के प्रति अपने रोमांस को कवि ने बड़ी ही सार्थक तथा ओजस्वी वाणी में अभिव्यक्त किया है। 'मूक' विशेषण ही स्वयं ध्वन्यात्मक है । मूक लगने की क्रिया के पीछे कितने प्रकार के स्वर हैं जो इस माटी के अस्तित्व को निरन्तर सार्थकता प्रदान कर रहे हैं। यह माटी तो अनन्तगुण धारिणी है। इस माटी के माध्यम से यह सन्त कवि स्वयं साहित्य की परिभाषा प्रस्तुत करता है।
- इस महाकाव्य को मैं हिन्दी काव्य-साहित्य का अद्वितीय महाकाव्य कहूँगा, क्योंकि इसमें न तो अधिक मानव पात्र हैं और न उनके जीवन की कथा या घटना । यदि महाकाव्य के शास्त्रीय तत्त्वों की ओर से देखा जाय तो इसमें महाकाव्य के वे लक्षण नहीं प्राप्त होंगे जो रामायण व महाभारत को एक उत्तम महाकाव्य बनाते हैं । महाकाव्य के लक्षणों में इस महाकाव्य ने सैद्धान्तिक दृष्टि से एक नए अध्याय को जोड़ा है । माटी को तथा समस्त मानवेतर प्रकृति को अपने काव्य का मूलाधार बनाकर लेखक ने महाकाव्य की परम्परा में एक नए सिद्धान्त की स्थापना की है। प्रवाही भाषा में लिखा गया वह महाकाव्य कहीं भी टीडियस या नीरस नहीं है । सामान्यत: मनुष्य अपने साहित्य में आज तक अपनी ही कहानी गढ़ता आया है। इस महाकाव्य के माध्यम से आचार्यजी ने एक नई ज़मीन तोड़ कर, नए-नए आयाम प्रस्तुत किए हैं।
इस महाकाव्य में यदि एक ओर उत्तम शब्दालंकार हैं तो दूसरी ओर अर्थालंकार की अनोखी छटा है। इसमें ऐसे भी प्रसंग हैं जहाँ उत्तमोत्तम सूक्तियों के माध्यम से कवि ने आध्यात्मिकता के नए-नए सोपान तय किए हैं। कवि यही प्रतिपादित करता है कि ईश्वर का अस्तित्व तो है पर वह धरती या सृष्टि का कर्ता नहीं है।