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संवेदनाओं का महाकाव्य : 'मूकमाटी'
डॉ. सुदर्शन मजीठिया आचार्यश्री विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' महाकाव्य अपने शिल्प, भाव और भाषा के कारण सहसा ध्यान आकृष्ट करता है । समस्त महाकाव्य का आधार माटी है, जिसे आज तक मूक समझा जाता रहा है। पर यह माटी तो शाश्वत है, जो अपने पुत्रों से निरन्तर संवादरत है । परन्तु एक उसके पुत्र हैं जो पद तथा अर्थ की प्राप्ति में लिप्त, पदार्थवाची बन अपने तथा अपने परिवार की समस्याओं के दलदल में आकण्ठ डूबे रहते हैं । इस मूकमाटी के पुत्र विद्यासागरजी ने माटी की भाषा को सुना और गुना । फिर अपनी प्रतिक्रिया की क्रियात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से उसे साकार किया। आचार्य के सन्त में उनका कवि निरन्तर मुखरित होता रहा है, जिसने माटी की चरम भव्यता को संक्षिप्त किन्तु धारदार वाणी द्वारा हमारे समक्ष प्रस्तुत किया।
इस माटी के वे स्वयं अन्यतम सर्जन हैं। अपने को अध्यात्म तक सीमित न रख उन्होंने काव्य व अध्यात्म के सामंजस्य के भेद को मिटा कर उसकी एकता को स्थापित किया है । 'मूकमाटी' का कवि एक सन्त है, जो संसार की नश्वरता तथा भौतिकता से कहीं ऊपर उठ चुका है। उसने ऊपर उठ कर इस माटी की भाषा को सुना, उसके संवाद को समझा और गद्गद होकर 'मूकमाटी' का सृजन किया। चार खण्डों की यह कृति लगभग ५०० पृष्ठों में समाहित होकर माटी की लय को, उसकी वाणी को साकारता प्रदान करती है।
अज्ञानतावश हम शब्दों की भाषा के अतिरिक्त कोई भाषा जानते ही नहीं, इसलिए एक सीमा के पश्चात् हमारा ज्ञान ही अज्ञान बन जाता है । विद्यासागर ने इस माटी की भाषा को समझा । इस माटी को किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं में ही एक प्रखर संज्ञा है । विभोर हो कवि कहता है :
"...संकोच-शीला/लाजवती लावण्यवती-/सरिता-तट की माटी
अपना हृदय खोलती है/माँ धरती के सम्मुख !" (पृ. ४) माटी तो माटी ही है । इसलिए तो कवि कहता है :
"इसकी पीड़ा अव्यक्ता है/व्यक्त किसके सम्मुख करूँ ?" (पृ. ४) कवि ने इस माटी को अपनी कल्पना, अनुभूति तथा चिन्तन से पूरी तरह से समझने का प्रयास किया है । यही प्रयास 'मूकमाटी' के रूप में हमारे सामने अत्यन्त सजीव हो उठा है।
इसी माटी को प्राणवत्ता प्रदान करते हैं - चाँद, तारे, कुमुदिनी, कमलिनी, सुगन्धित पवन तथा सरिता तट आदि । यही माटी अपनी शून्यावस्था में कुछ नहीं होकर भी सब कुछ है । संसार में जो भी है, जैसा भी है, उसे माटी ने ही आधार प्रदान किया है।
हर कृति का मूलाधार मनुष्य होता है । मानवेतर प्रकृति को नायिका मानकर माटी के अनेक रंगों को अपनी ओजमयी वाणी द्वारा कवि ने प्रस्तुत किया है।
"शिल्पी के शिल्पक-साँचे में/साहित्य शब्द ढलता-सा ! 'हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है/और सहित का भाव ही/साहित्य बाना है/अर्थ यह हुआ कि/जिसके अवलोकन से सुख का समुद्भव-सम्पादन हो/सही साहित्य वही है'।" (पृ. ११०-१११)