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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 119 बुन्देलखण्ड की पण्डितरत्न-प्रसविनी धरती पर विहार कर रहे हैं। उन्होंने दुर्द्धर्ष तपस्या की है। उनका तेजोवलय उनकी तस्वीरों में देखने को मिलता है । वे प्रचण्ड शास्त्रज्ञानी हैं, महातपस्वी भी हैं और साथ ही हैं महाकवि भी। यह महाकाव्य धरती के ध्रुवाकर्षण से ऊपर उठने की आहती साधना करने वाले भगवत् स्वरूप आचार्य भगवन्त श्री विद्यासागरजी की रचना है। निश्चय ही आगामी भव में धरती के धुवाकर्षण से ऊपर उठकर वे अन्तरिक्षचारी अर्हत् होंगे। सुनता हूँ आचार्य भगवन्त मुझ अकिंचन को स्मरण करते रहते हैं। पर अपने दीर्घकाल-व्यापी अनारोग्य और दारुण्य जीवन संघर्ष के चलते मैं उनके चरणों तक न पहुँच सका । यह मेरा चरम दुर्भाग्य है। ___ आशा करता हूँ कि आचार्य भगवन्त विद्यासागर स्वामी मेरे इन शब्दों के पादार्घ्य को स्वीकार कर मुझे धन्यता प्रदान करेंगे । अथ इति शुभम्। 'मूकमाटी' : तेरा अभिनन्दन कविराज विद्या नारायण शास्त्री अहो ! धन्य तुम जगती तल में, 'मूकमाटी' तेरा अभिनन्दन । साधनाशील की प्रतिमा तुम, आचार करें तेरा वन्दन ॥१॥ रचना मुक्त छन्द शैली में, अध्यात्मसारमय तव चिन्तन । भाषा सरस, उपमा मनोरम, काव्य कला से धरती नन्दन ॥२॥ मधुर सहजता बोधक सुन्दर, देता विचार सागर मन्थन । घोर उपेक्षित जड़ जीवन का, कैसा सुखद मृदुल मन भावन ॥३।। रस ध्वनि अलंकारसार यहाँ, कल्पना भावना का गुम्फन । निरन्तर छन्द प्रवाह अविचल, जड़ता सजीवता का बोधन ॥४॥ श्री विद्यासागर की रचना, धन्य काव्य के पाठक सज्जन । नवल मूल्य स्थापित घट-घट में, चाह रही मम उन्मादित मन ॥५।।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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