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'मूकमाटी' महाकाव्य : एक विनम्र प्रतिभाव
वीरेन्द्र कुमार जैन
कुमार योगी भगवत् स्वरूप आचार्य विद्यासागर स्वामी ने अपने महाकाव्य 'मूकमाटी' में माटी की मूक व्यथा Star प्रदान की है। इस महाकाव्य में अनन्त आयामी सृष्टि के अनन्तकाल में व्याप्त अणु-परमाणु के परिणमन के विज्ञान को भावात्मकता प्रदान की गई है। यह भावोन्मेष ही दर्शन को काव्य और अध्यात्म में परिणत कर देता है ।
महाकाव्य की लाक्षणिक परिभाषाओं में उलझना पण्डितों का काम है, मेरा नहीं, क्योंकि मैं मूलत: कवि हूँ। मेरी अकिंचन महाकाव्यात्मक कृति 'अनुत्तर योगी' को भी मैंने किसी पारिभाषिक, लाक्षणिक व्याख्या में नहीं बाँधा है। वह एक स्वत:स्फूर्त आनन्द के उन्मेष से रची गई कृति है । मेरा यह अहोभाग्य है कि पूज्यपाद आचार्य भगवन्त विद्यासागरजी स्वामी ने उस पवित्र कृति को सराहा और स्वाध्याय की पवित्र चौकी पर से उसका पाठ करवाया, अस्तु ।
'मूकमाटी' अनन्त आयामी कृति है। इसमें गणित शास्त्र, परमाणु शास्त्र, खगोल विज्ञान, आयुर्वेद शास्त्र और मन्त्र-तन्त्र के बीजाक्षरों तक को काव्य भाषा में अभिव्यक्ति दी गई है । अनायास ही इस कृति में शृंगारिक प्रतीकों का समावेश हुआ है । मैं इसे दर्शन नहीं, आध्यात्मिक उन्मेष का काव्य कहना चाहूँगा। माटी की मूक व्यथा को वाणी देने वाला कवि निश्चय ही एक गहरी अन्तश्चेतनिक संवेदना से अनुप्राणित है ।
इस कृति में सृष्टि के आविर्भाव से लगाकर उसकी अग्रिम उपलब्धि तक को काव्य रूप प्रदान किया गया है। यहाँ आधुनिक विज्ञान के परमाणु शास्त्र और खगोल शास्त्र का अनायास समावेश हुआ है । यह साम्प्रदायिक जैनागम तक सीमित नहीं है, यह तो एक महाकवि के रसात्मक अनुभव से उत्स्फूर्त मौलिक काव्य रचना है । भगवान् कुन्दकुन्द देव के किसी प्राभृत में यह भाव है कि 'स्वानुभूतिसंवेदक: स आत्मा' – यह एक अत्यन्त मौलिक, मुक्त अनुभव की अभिव्यक्ति है ।
आचार्य भगवन्त ने मौलिक अनुभूति में से ही इस महाकाव्य की रचना की है। एक सुखद आश्चर्य यह भी है कि इस महाकाव्य के रचनाकार ने धन समृद्धि सम्पन्न श्रेष्ठियों द्वारा दीन-दलितों के पीड़न शोषण की व्यथा को भी वाणी प्रदान की है। यहाँ केवल आत्ममुक्ति ही नहीं है, समाजमुक्ति का मन्त्रगान भी किया गया है। यहाँ अनजाने ही समाजवाद भी ध्वनित है । इसी कारण आचार्य भगवन्त विद्यासागर स्वामी मेरे लिए वन्दनीय हैं, प्रातः स्मरणीय हैं ।
कर्नाटक देश का बाईस वर्षीय कुमार विद्याधर कब अनायास विद्यासागर हो गया, कब दिगम्बर हो गया, यह एक बहुत महान् घटना है । आचार्य भगवन्त उसी कर्नाटक की माटी के बेटे हैं, जहाँ कुछ सदियों पूर्व ही मूड़बिद्री में 'भरतेश वैभव' नामक महाकाव्य के रचयिता कामाध्यात्मयोगी श्री रत्नाकर वर्णी का जन्म हुआ था। योगीश्वर रत्नाकर वर्णी ने ‘सम्भोग श्रृंगार पर्व' तक रचा है, जो गहरे में जन्मजात योगी चक्रवर्ती भरत के दृष्टिप्रधान आत्मलीन भोगोपभोग निर्गूढ़ अभिव्यक्ति है ।
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इसी कर्नाटक में परापूर्व काल में नैयायिक चक्रवर्ती भगवान् समन्तभद्र भी हुए। शायद नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती भी इसी कर्नाटक में हुए । षट्खण्डागम के रचनाकार पुष्पदन्त भूतबली भी शायद इसी कर्नाटक में हुए । बीच के काल में लुप्तप्राय दिगम्बर जैनश्रमण परम्परा में बीसवीं शताब्दी में प्रथम श्रमण महातपस्वी आचार्य शान्तिसागर हुए। फिर आचार्य मिसागर और वर्तमान में जिनवाणी के प्रचण्ड प्रवक्ता आचार्य विद्यानन्द स्वामी भी भारत में सर्वत्र विहार कर रहे हैं । वे रत्नाकर वर्णी की तरह ही विश्वधर्म-प्रवर्तक हैं।
आचार्य भगवन्त, परम भट्टारक, भगवत् स्वरूप, महातपस्वी आचार्य विद्यासागर भी अतिथि-चर्या करते हुए
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