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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 117 २. मोह और असाता के उदय में क्षुधा की वेदना होती है । यह क्षुधा तृषा का सिद्धान्त है । म इसका ज्ञात होना ही साधुता नहीं है वरन् ज्ञान के साथ साम्य भी अनिवार्य है । (पृ. ३३०) ३. कोष के श्रमण बहुत बार मिले हैं। होश के श्रमण विरले ही होते हैं । (पृ. ३६१ ) उस समता से क्या प्रयोजन जिसमें इतनी भी क्षमता नहीं है जो समय पर भयभीत सके। (पृ. ३६१) ४. ५. जब आँखें आती हैं तो दुःख देती हैं, जब आँखें जाती हैं तो दुःख देती हैं और जब आँखें लगती हैं तो दु:ख देती हैं। आँखों में सुख है कहाँ ? ये आँखें दुःख की खनी हैं, सुख की हनी हैं । यही कारण है कि सन्त संयत-साधुजन इन पर विश्वास नहीं रखते और सदा-सर्वथा चरणों को लखते विनीत दृष्टि हो चलते हैं । (पृ. ३५९-३६०) 1 ६. एक के प्रति राग करना ही दूसरों के प्रति द्वेष सिद्ध करता है । जो रागी भी है, द्वेषी भी है। वह सन्त नहीं हो सकता। (पृ. ३६३) ७. पाप-भरी प्रार्थना से प्रभु प्रसन्न नहीं होते। पावन की वह प्रसन्नता पाप के त्याग पर आधारित है। (पृ. ३७३) ८. 'स्व' को 'स्व' के रूप में एवं 'पर' को 'पर' के रूप में जानना ही सही ज्ञान है । 'स्व' में रमण करना ही सही ज्ञान का फल है । (पृ. ३७५) ९. तन और मन का गुलाम ही पर-पदार्थों का स्वामी बनना चाहता है। (पृ. ३७५) १०. सूखा प्रलोभन मत दिया करो, स्वाश्रित जीवन जिया करो। (पृ. ३८७) ११. पर के दुःख का सदा हरण हो । जीवन उदारता का उदाहरण बने । (पृ. ३८८) [ 'अनेकान्त' (त्रैमासिक) नई दिल्ली, वर्ष ४५, किरण १, जनवरी-मार्च, १९९२ 'अभय दे पृ. ८ और यह भी देख--- ... दलदल में बदल जाती है ! D
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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