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116 :: मूकमाटी-मीमांसा
भवभूति के अनुसार करुण रस ही एकमात्र मुख्य रस है । निमित्त घटना (विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों की विलक्षणता से) यह भिन्न-भिन्न रूप धारण कर लेता है, परन्तु यथार्थत: वह एक ही होता है :
"एको रस: करुण एव निमित्तभेदाद्, भिन्नः पृथक्पृथगिवाश्रयते विवर्तान् । आवर्तबुद्बुदतरङ्गमयान्विकारानम्भो यथा सलिलमेवतु तत्समग्रम् ॥"
(उत्तररामचरित, ३/४७) आचार्य विद्यासागर की दृष्टि में करुणा हेय नहीं, उसकी अपनी उपादेयता है, अपनी सीमा भी है। करुणा करने वाला अहं का पोषक भले ही न बने, किन्तु स्वयं को गुरु-शिष्य अवश्य समझता है और जिस पर करुणा की जाती है, वह स्वयं को शिशु-शिष्य अवश्य समझता है। दोनों का मन द्रवीभूत होता है । शिष्य शरण लेकर तो गुरु शरण देकर कुछ अपूर्व अनुभव करते हैं। पर इसे सही सुख नहीं कहा जाता है। किन्तु इससे दुःख मिटने और सुख के मिलने का द्वार अवश्य खुलता है । करुणा करने वाला अधोगामी तो नहीं किन्तु अधोमुखी यानी बहिर्मुखी अवश्य होता है । जिस पर करुणा की जा रही है वह अधोमुखी तो नहीं, ऊर्ध्वमुखी अवश्य होता है (पृ. १५४-१५५)।
करुणा की दो दृष्टियाँ हैं- एक विषय लोलुपिनी और दूसरी विषय-लोपिनी, दिशा-बोधिनी (पृ. १५५)।
करुणा रस में शान्त रस का अन्तर्भाव मानना बड़ी भूल है । उछलती हुई उपयोग की परिणति करुणा है । इसे नहर की उपमा दी जा सकती है। उजली-सी उपयोग की परिणति शान्त रस है जिसे नदी की उपमा दी जा सकती है। नहर खेत में जाकर दाह को मिटाकर सूख जाती है। नदी सागर को जाती है और राह को मिटाकर सुख पाती है । करुणा तरल है । वह दूसरे से प्रभावित होती है । शान्त रस दूसरे के बहाव में बहता नहीं है, जमाना पलटने पर भी अपने स्थान पर जमा रहता है । इससे यही द्योतित होता है कि करुणा में वात्सल्य का मिश्रण सम्भव नहीं है (पृ. १५५-१५७) । वात्सल्य रस के आस्वादन में हलकी-सी मधुरता क्षणभंगुरता झलकती है (पृ. १५८-१५९)।
. करुणा रस जीवन का प्राण है तो वात्सल्य जीवन का त्राण है। किन्तु शान्त रस जीवन का गान है। यह मधुरिम क्षीरधर्मी है । करुणा रस पाषाण को भी मोम बना देता है । वात्सल्य जघनतम नादान को भी सोम बना देता है। किन्तु, यह लौकिक चमत्कार की बात हुई । शान्त रस संयम-रत धीमान् को ही 'ओम्' बना देता है । संक्षेपत: सब रसों का अन्त होना ही शान्त रस है (पृ. १५९-१६०) ।
__ इस प्रकार आचार्य विद्यासागर के मत में करुण रस में सब रस समाते हैं। सब रसों की सत्ता का विलीन हो जाना शान्त-रस है । इस प्रकार आचार्य विद्यासागर की रस विषयक अवधारणा ‘रतये' नहीं व्युपशान्तये' है, जो उनके सन्त हृदय को लक्षित करती है। निमित्त और उपादान : केवल उपादान कारण ही कार्य का जनक है, यह मान्यता दोषपूर्ण लगी। निमित्त की कृपा भी अनिवार्य है । हाँ ! हाँ !! उपादान-कारण ही कार्य में ढलता है, यह अकाट्य नियम है । किन्तु उसके ढलने में निमित्त का सहयोग भी आवश्यक है । इसे यूँ कहें तो और उत्तम होगा :
"उपादान का कोई यहाँ पर/पर-मित्र है तो वह निश्चय से निमित्त है/जो अपने मित्र का/निरन्तर नियमित रूप से
मन्तव्य तक साथ देता है।" (पृ. ४८१) सूक्ति रत्न : १. श्रमण का शृंगार ही समता-साम्य है । (पृ. ३३०)