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'मूकमाटी' में आचार्यश्री विद्यासागर का रस विषयक मन्तव्य
डॉ. रमेश चन्द जैन
काव्यशास्त्रियों ने नव रस कहे हैं- शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त । सहृदयों को रस की अनुभूति कराना ही काव्य का मुख्य प्रयोजन है । यह आनन्द की अनुभूति सभी रसों में समान रूप से हुआ करती है। फिर भी प्रभावी सामग्री के भेद से इसमें चित्त की चार अवस्थाएँ हो जाती हैं-विकास, विस्तार, क्षोभ
और विक्षेप । शृंगार में चित्त का विकास होता है, वीर में विस्तार, बीभत्स में क्षोभ और रौद्र में विक्षेप । हास्य, अद्भुत, भयानक और करुण में भी क्रमश: विकास आदि चारों हुआ करते हैं । शान्त रस में मुदिता, मैत्री, करुण और उपेक्षाये चार चित्त की अवस्थाएँ हुआ करती हैं।
आचार्य विद्यासागर ने 'मूकमाटी' महाकाव्य में प्रसंगानुकूल रसों का विवेचन किया है। वीर रस के विषय में शिल्पी के वीर्य से कहलाया है कि वीर रस से तीर का मिलना कभी सम्भव नहीं है और पीर का मिटना त्रिकाल असम्भव । आग का योग पाकर शीतल जल चाहे भले ही उबलता हो, किन्तु धधकती अग्नि को भी नियन्त्रित कर उसे बुझा सकता है । परन्तु वीर रस के सेवन से तुरन्त मानव खून उबलने लगता है, वह काबू में नहीं आता। दूसरों को शान्त करना तो दूर, शान्त माहौल भी ज्वालामुखी के समान खौलने लगता है । इसके सेवन से जीवन में उद्दण्डता का अतिरेक उदित होता है । पर, पर अधिकार चलाने की भूख इसी का परिणाम है । मान का मूल बबूल के ढूँठ की भाँति कड़ा होता है । मान को धक्का लगते ही वीर रस चिल्लाता है । वह आपा भूलकर आगबबूला हो पुराण-पुरुषों की परम्परा को ठुकराता है (पृ. १३१-१३२)।
वीर रस के पक्ष में हास्य रस कहता है कि वीर रस का अपना इतिहास है । जो वीर नहीं हैं, अवीर हैं, उन पर क्या, उनकी तस्वीर पर भी अबीर नहीं छिटकाया जाता है। यह बात दूसरी है कि जाते समय अर्थी पर सुलाकर भले ही छिटकाया जाता हो । उनके इतिहास पर न रोना बनता है, न हँसना (पृ. १३२-१३३)।
हास्य रस के विषय में कहा है कि हँसनशील प्राय: उतावला रहता है। कार्याकार्य का विवेक, गम्भीरता और धीरता उसमें नहीं होती । वह बालक-सम बावला होता है । तभी स्थितप्रज्ञ हँसते नहीं हैं । आत्मविज्ञ मोह-माया के जाल में फँसते नहीं हैं। खेद-भाव के विनाश हेतु हास्य का राग आवश्यक भले ही हो, किन्तु वेद-भाव के विकास हेतु हास्य का त्याग अनिवार्य है, क्योंकि हास्य भी कषाय है (पृ. १३३-१३४)।
रौद्र रस के विषय में आचार्यश्री ने कहा है कि रुद्रता विकृति है, विकार है, जो समिट-शीला होती है । भद्रता प्रकृति का प्रकार है । उसकी अमिट लीला है (पृ. १३५)।
___ कवि को शृंगार नहीं रुचता । वह कहता है शृंगार के ये अंग-अंग खंग-उतारशील हैं । युग छलता जा रहा है । (पृ.१४५) । कवि के इस कथन में वियोगी-कामी की वह स्थिति द्योतित होती है, जब कामदेव कामी को दिन-रात जलाता ही रहता है । उसे कपूर, हार, कमल, चन्द्रमा आदि विपरीत परिणत हुए दिखाई देने लगते हैं। ये वस्तुएँ उसे कुछ भी सुख नहीं पहुँचातीं।
बीभत्स रस शृंगार को नकारता है, उसे चुनता नहीं है । शृंगार के बहाव में प्रकृति की नासा बहने लगती है। कुछ गाढ़ा, कुछ पतला, कुछ हरा, पीला मल निकलता है, जिसे देखते ही घृणा होती है (पृ. १४७)। करुण रस को भवभूति ने प्रधान रस माना है । भवभूति के कारुण्योत्पादक काव्य को सुनकर :
“अपि ग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम् ।"(उत्तररामचरित, १/२८)