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: मूकमाटी-मीमांसा
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कह रहा है? किस अवसर पर कह रहा है ? किस ढंग से कह रहा है ? अपितु महत्त्व है कि क्या कह रहा है ? बस। क्योंकि जो कह रहा है, उसी के अनुरूप आचरण करने में कल्याण है, साधना की ज्योति का प्रकाश है।
इस प्रकार यह समूचा काव्य ही मन्त्र काव्य है फिर भी कुछ विशेष स्थलों का उल्लेख करना यहाँ अनुपयुक्त नहीं होगा, जैसे :
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"दर्शन का स्रोत मस्तक है / ... बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं । ... कभी सत्य - रूप कभी असत्य - रूप / होता है दर्शन, जबकि
अध्यात्म सदा सत्य चिद्रूप ही / भास्वत होता है ।" (पृ. २८८)
इस प्रकार के अनेकानेक स्थल हैं जहाँ से हमें साधक आचार्य की सिद्धि के प्रकाश विकीर्ण होते दिखाई देते हैं :
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" आशातीत विलम्ब के कारण / अन्याय न्याय - सा नहीं
न्याय अन्याय - सा लगता ही है । (पृ. २७२)
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'आत्मा को छोड़कर / सब पदार्थों को विस्मृत करना सही पुरुषार्थ है ।" (पृ. ४८२)
" पराश्रय लेना दीनता का प्रतीक है ।" (पृ. ४५९ )
“समर्पण के बाद समर्पित की / बड़ी-बड़ी परीक्षायें होती हैं।” (पृ. ४८२)
सामाजिक जीवन से विरक्त एक श्रमणाचार्य के मन में समाज कल्याण करने की कितनी तड़प है और वे अपनी अमृतमयी वाणी से किस सहृदयता से हमारे समक्ष उसे उद्घाटित करते हैं इसका बोध 'मूकमाटी' के अध्ययन से सहज ही हो सकता है। आचार्यश्री जी की इस रचना का मैं सादर अभिनन्दन करता हूँ ।
पृ. ६६
इधर-क्या हुआ? उसकी
मानस स्थिति भी ऊर्ध्वमुखी हो आई,
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