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मूकमाटी-मीमांसा :: 113
द्वारा सेठ-परिवार की रक्षा करना, बढ़ियाई नदी पार करने की समस्या से हाल-बेहाल सेठ परिवार को कुम्भ द्वारा उपाय बतलाना और अपने गले में रस्सी का फंदा डलवा कर पूरे सेठ परिवार को रस्सी पकड़वा कर अकेले एक कुम्भ द्वारा नदी पार करवा देना, आतंकवाद से संघर्ष करने के नाम पर नदी पार कर सुरक्षित स्थान पर भाग जाने की सलाह देना, मांसभक्षी जल जीवों द्वारा अहिंसाव्रती सेठ-परिवार को छू-छू कर छोड़ देना, नदी का धरा को भला-बुरा कहना, सेठ का नदी को समझाना, कुम्भ का नदी को ललकारना, महामत्स्य द्वारा कुम्भ को मुक्ता-मणि दान करना, आतंकवाद की नदी से गुहार, उसके द्वारा नौका के सहारे सेठ-परिवार को जा घेरना और उन पर पत्थरों की बौछार करना, फिर भी कुम्भ को फोड़ पाने में एवं बँधी हुई रस्सी को काट पाने में असफल रह जाना, प्रचण्ड वात्यचक्र का आकर आतंकवाद को आतंकित-मूर्छित कर देना और फिर कुम्भ के इशारे पर शान्त हो जाना, नदी द्वारा सेठ परिवार का पक्ष ले आतंकवाद को नाव सहित डुबो देने की चेष्टा, आतंकवाद के मन्त्र स्मरण से देवता दल का उनकी सहायता हेतु आगमन परन्तु आतंकवाद की इच्छा के अनुरूप मदद न दे पाने की अपनी असमर्थता प्रगट करना, आतंकवाद को सेठ परिवार की शरण में जाने की सलाह देना, आतंकवाद का सेठ के समक्ष प्रणत हो क्षमा-याचना करना, सेठ का सहृदयता से उन्हें धर्मोपदेश देना, उपकृत आतंकवाद के सदस्यों का नाव छोड़कर नदी में छलांग लगाना और सेठ-परिवार के सदस्यों द्वारा उन्हें गोदी में उठाकर बचाना, नाव के डूबने को आतंकवाद का अन्त और अनन्तवाद का श्रीगणेश बताना, कुम्भ के पीछे-पीछे पंक्तिबद्ध हो सबका चलना, कुम्भ द्वारा सबके लिए मंगलाशीष देना, नदी तट द्वारा कुम्भ का भाव-विह्वल स्वागत, सबकी प्राणरक्षा करने वाली रस्सी द्वारा लोगों से बस इतने भार के लिए क्षमा माँगना कि लोगों की कमर में बँधी होने के कारण लोगों की कमर को क्लेश पहुँचा, परिवार द्वारा रस्सी को दिलासा देना, सेठ परिवार सहित कुम्भ द्वारा कुम्भकार का स्वागत, धरती द्वारा कुम्भ का अभिनन्दन, धरती-कुम्भ और सभी द्वारा कुम्भकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन, कुम्भकार का विनीत भाव, और उसी विनीत भाव से वह सभी का ध्यान पादप के नीचे शिलाखण्ड पर समासीन नीराग साधु की ओर आकृष्ट करता है, सभी प्रदक्षिणा कर आशीष लेते हैं, आतंकवाद अपनी तमाम बुराइयों को समझते हुए अविनश्वर सुख पाने की याचना करता है और उनके जैसी साधना को जीवन में अपना सकने का आशीष चाहता है। करुणामय गुरुदेव शान्त, सहज चित्त से श्रमण साधना के गूढ़ तत्त्वों का उपदेश देते है, आचरण, निष्ठा और सहज विश्वास के बल पर अभीष्ट सिद्धि का मर्म बतलाते हैं।
उपर्युक्त कथानक की कड़ियाँ आपस में जुड़ी-जुड़ी प्रतीत नहीं होती, कार्य-कारण सम्बन्ध भी बहुत स्पष्ट नहीं है और कार्य की गति भी सहज गति से आगे बढ़ती प्रतीत नहीं होती । लौकिक कथानकों से यह कथानक बड़ा ही अटपटा-सा लगता है। नायक-प्रतिनायक अथवा रस-विमर्श की दृष्टि से भी यहाँ स्पष्टता नहीं है। प्राप्तव्य क्या है और फलागम किसे होना है, यह भी साफ नहीं है। विभिन्न जीव अपने सहज स्वभाव से विपरीत आचरण करते से दिखाई देते हैं, ऐसी दशा में प्रस्तुत काव्य की रसानुभूति भी सहज उपभोग्य नहीं बन पाती।
परन्तु जब हम इस ओर ध्यान देते हैं कि दरअसल लौकिक रसास्वाद इस कृति का उद्देश्य नहीं है अपितु प्रकृत, यथार्थ और कल्याणकारी रसास्वाद पर ही इसकी दृष्टि है, अतएव येन-केन-प्रकारेण यह मानव-कल्याण के पथ को श्रोता या पाठक के समक्ष प्रशस्त करना चाहता है तो कथा की लौकिक सहजता की ओर ध्यान न जाकर रसास्वाद में बाधा नहीं पड़ती। आचार्यश्री की आत्मिक साधना ने उन्हें कुछ प्रत्यक्ष बिन्दु दिए हैं। इन प्रत्यक्ष बिन्दुओं में वे तत्त्व अधिक प्रकाशित हैं जो लोक-हित और जीव-हित के साधन बन सकते हैं। उन्हीं तत्त्वों को पाठकों के समक्ष रखने की योजना बना कर वे एक साधारण-सी कथा का सहारा भर लेते हैं जिसके दौरान वे अपने जैन दर्शन, श्रमण-साधना और अपने निजी अनुभवों से प्राप्त मन्त्रों को हमारे समक्ष उद्घाटित कर सकें । अत: यहाँ महत्त्व इस बात का नहीं है कि कौन