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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 111 विश्वास में नहीं है । समुद्र को अकल्याणकामी और विध्वंसक खलनायक के रूप में चित्रित किया गया है, जो गढ़े गए और सूख रहे कुम्भ को नष्ट कर देने के अभिप्राय से वह अपनी जड़बुद्धि के कारण बदलियों को भेजता है कि वे जाकर पानी बरसाएँ और सूख रहे घड़ों को गला कर बहा दें। परन्तु सूर्य के उपदेश से वे सत्पथ पर आ जाती हैं और घड़े को गला देने की जगह मेघ मुक्ताओं की बारिश कर घड़े को और कुम्भकार के घर के प्रांगण को मोतियों से भर देती हैं। बदलियों के स्त्रीलिंग होने का लाभ उठाते हुए रचनाकार ने इसी प्रसंग में नारी-('न अरि' नारी.', ये आरी नहीं हैं सो नारी", पृ. २०२), अबला (न बला सो अबला पृ. २०३), कुमारी-('कु' यानी पृथिवी/'मा' यानी लक्ष्मी/और 'री' यानी देने वाली"/...यह धरा सम्पदा-सम्पन्ना/तब तक रहेगी/जब तक यहाँ 'कुमारी' रहेगी, पृ. २०४), स्त्री-('स्' यानी सम-शील संयम/'त्री' यानी तीन अर्थ हैं/धर्म, अर्थ, काम-पुरुषार्थों में/पुरुष को कुशल-संयत बनाती है/सो स्त्री कहलाती है, पृ. २०५), सुता-(सुख-सुविधाओं का स्रोतसो -/'सुता' कहलाती है, पृ. २०५), दुहिता- (दो हित जिसमें निहित हों,/वह 'दुहिता' कहलाती है, पृ. २०५), मातृ-(जो सब की आधार-शिला हो,/सब की जननी/मात्र मातृतत्त्व है, पृ. २०६) जैसी व्याख्यात्मक टिप्पणियाँ प्रस्तुत करता है । ऊपर से देखने पर यह सब मात्र कल्पनाएँ हैं और शाब्दिक कल्पना ही दिखाई पड़ता है परन्तु इसके नीचे नारी जाति के प्रति आचार्यश्री के मन में जो आदर भाव है वही मुखरित होता दिखाई पड़ता है। "इसीलिए इस जीवन में/माता का मान-सम्मान हो, उसी का जय-गान हो सदा,/धन्य!" (पृ. २०६) सूर्य के उपदेशों से मुक्ता वर्षा करने वाली बदलियों की मुक्ता-वर्षा का समाचार सुनकर जहाँ एक ओर राजा के अनुचर सारी मुक्ताओं को बोरियों में भर लेने, उसे उठा ले जाने के लिए ज्यों ही झुकते हैं, त्यों ही आकाश में गम्भीर गर्जना होती है, उससे विरत रहने को। अन्त में कुम्भकार स्वयं ही यूँ आकाश से बरसी मुक्ताओं को राजा की ही सम्पत्ति मान कर उन्हें ही सौंपा देता है । कुम्भ द्वारा राजा पर की गई कटूक्ति को भी कुम्भकार अच्छा नहीं समझता : "लघु होकर गुरुजनों को/भूलकर भी प्रवचन देना महा अज्ञान है दु:ख-मुधा।" (पृ. २१८) दूसरी ओर बदलियों के इस कृत्य से सागर और क्षुब्ध हो जाता है और सघन घनों को भेजता है, सब कुछ गलाबहा देने को । घनों का सूर्य से विवाद होता है । सागर फिर सूर्य से भिड़ने के लिए राहु को भेजता है। राहु सूर्य को निगल जाता है। तब धूलि-कण उड़-उड़कर संहारकारी वर्षा करनेवाले बादलों की बारिश, ओले वगैरह का सामना करते हैं। फिर अदृश्य रूप में ही इन्द्रदेवता अपना सर-सन्धान करते हैं बादलों पर (यह प्रसंग इस दृष्टि से ठीक नहीं ऊँचता कि इन्द्र तो बादलों के ही देवता मान्य हैं । वे उनके संघारक नहीं हो सकते)। यहाँ इन्द्र के तुल्य लेखक स्वयं अवतरित हो अपना मन्तव्य प्रगट करता है : "मैं यथाकार बनना चाहता हूँ/व्यथाकार नहीं। और/तथाकार बनना चाहता हूँ/कथाकार नहीं।" (पृ. २४४) लेखक स्वयं बादलों की अत्याचारी वृत्तियों पर प्रहार करता है । ओलों की वृष्टि भी कुम्भ का कुछ बिगाड़ नहीं पाती। इस प्रसंग में गुलाब का फूल, उसके काँटे भी अपना-अपना मन्तव्य प्रगट करते हैं। दरअसल सारी कल्पनाओं के
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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