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________________ 110 :: मूकमाटी-मीमांसा और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है।" (पृ. १११) फिर तो साहित्य की विस्तृत चर्चा छिड़ जाती है । जिस क्रम में स्रष्टा कवि से ले कर श्रोता- भोक्ता, पाठक तक के साहित्यिक रसास्वाद पर रचयिता अपनी टिप्पणियाँ देता चलता है । मौन की महिमा का बखान करता है । प्रकृति व पुरुष के गुण-धर्म की चर्चा करता है। अपने नाना प्रकार के उपदेशों से रचयिता यहाँ रसाभिभूत करने के स्थान पर पाठक को ज्ञानाभिभूत कर देता है । साहित्य के नवों रसों को परस्पर किसी-न-किसी सम्बन्ध से सम्बद्ध कर उनकी सारी गुणवत्ता के साथ चित्रित किया गया है । रस-चर्चा का यह अंश अपेक्षाकृत अधिक लम्बा खिंच गया है । वैसे इस क्रम में भी आचार्यश्री अवसर निकालकर ज्ञानोपदेश देते चलते हैं, जैसे : ० "स्थित-प्रज्ञ हँसते कहाँ ?/मोह-माया के जाल में आत्म-विज्ञ फंसते कहाँ ?" (पृ. १३४) ० "हे शृंगार !/स्वीकार करो या न करो/यह तथ्य है कि, हर प्राणी सुख का प्यासा है/परन्तु,/रागी का लक्ष्य-बिन्दु अर्थ रहा है और/त्यागी - विरागी का परमार्थ !" (पृ. १४१) ० "जीवन-जगत् क्या ?/आशय समझो, आशा जीतो ! आशा ही को पाशा समझो!" (पृ. १५०) - "सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है।” (पृ. १६०) कुम्भ का निर्माण पूर्ण हो चुकने के बाद उसके शृंगार-सजाव में विविध रेखांकनों एवं अंकों का उत्कीर्णन शिल्पी उस पर करता है, उन्हें भी प्रतीक मानकर उनके गूढार्थों को कवि स्पष्ट करता गया है । 0 “एक-दूसरे के सुख-दुःख में/परस्पर भाग लेना/सज्जनता की पहचान है, और/औरों के सुख को देख, जलना/औरों के दुःख को देख, खिलना दुर्जनता का सही लक्षण है।” (पृ. १६८) ० "'ही' एकान्तवाद का समर्थक है 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक ।" (पृ. १७२) तदनन्तर कुम्भ को जलाकर पकाने की प्रक्रिया आरम्भ होती है । इस क्रम में जो ताप देने की अवाँ में प्रक्रिया शुरू होती है उस क्रम में तप और तपन पर एक लम्बा आख्यान कवि प्रस्तुत करता है । और इस प्रकरण को वसन्त-ऋतु के व्यतीत हो जाने और ग्रीष्म के आगमन तक चित्रित करता है। ___'पुण्य का पालन: पाप-प्रक्षालन' शीर्षक खण्ड तीन अपेक्षाकृत दुरूह है, विशेषतः इसलिए कि इस खण्ड में महायोगी कृतिकार ने अपनी सहज साधना के क्रम में, अपने धर्मोपदेशों को सामने रखने के उद्देश्य से कुछ ऐसी कल्पनाएँ भी की हैं जो एक ओर जहाँ सहज स्वाभाविक प्रकृति क्रम के अनुकूल नहीं लगतीं, वायवीय कल्पना मात्र जान पड़ती हैं और तर्क की तुला पर ठीक नहीं बैठतीं, वहीं दूसरी ओर परम्परा प्राप्त रूढ़ियों और विश्वासों से भी मेल नहीं खातीं। जैसे कि आरम्भ में जल और जलनिधि सागर का जैसा वर्णन है आगे जाकर वह मानवीय कल्याण के विरुद्ध चित्रित किया गया है। तमाम तरह की मुक्ताओं के गिनाने में एक मेघमुक्ता की भी कल्पना की गई है, जो सहज लोक
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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