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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 109 ऐसे ही शब्द हैं जो सामान्य हिन्दी पाठक के लिए सहज बोधगम्य नहीं हैं। इस तरह के शब्द चमत्कारों अथवा दुरूह प्रयोगों के कारण रचना के जन-सामान्य के निकट परिचय में आ पाने में कठिनाई होती है। इन कुछ कठिनाइयों के अतिरिक्त यह रचना निश्चय ही बड़ी ही ज्ञानवर्धक और लोकोपकारी है। इसमें मानव-समाज के बस तीन ही विशिष्ट प्रतिनिधि हैं, एक- शिल्पी कुम्भकार, दूसरा-अतिथि-आराधक नगर सेठ और तीसरे नीराग साधु, बाकी सारे पात्र प्रायः प्रकृति के ही विविध रूपों के हैं अथवा फिर आतंकवादियों के गुटों के। आचार्यश्री ने 'माटी' जैसे एक अति सामान्य पदार्थ को, जिस पर जीवन भर जीवन बिताने पर भी किसी की दृष्टि विशेष आकर्षित नहीं होती, उसे इस काव्य का मूलाधार बनाकर जहाँ एक ओर अपनी उदारता का परिचय दिया है, वहीं माटी की वास्तविक महिमा का उद्घाटन भी किया है। सामान्य पृथ्वी या धरती से माटी को पृथक् करना, ऐसी माटी के तत्त्व का सन्धान करना जिससे रूपाकार बन सकें, और माटी के उस गौरव को प्रत्यक्ष करना जिसके समक्ष सोना-चाँदी जैसी महार्घ धातुओं का मूल्य भी श्री-हीन हो जाता है, एक अत्यन्त अन्तर्भेदी दृष्टि रखने वाले महात्मा से ही सम्भव है। 'मूकमाटी' काव्य चार खण्डों में विभक्त है-(१) खण्ड एक-'संकर नहीं: वर्ण-लाभ' बड़ा ही सार्थक है। प्राय: ही चराचर प्रकृति में संकर तत्त्वों की अर्थात् मिश्रित, अविशुद्ध तत्त्वों की भरमार है परन्तु जब भी कोई नयी सृष्टि करनी होती है तो संकर तत्त्वों से तो काम नहीं चल सकता । तब तो विशुद्ध तत्त्व की ही आवश्यकता होती है। कंकड़पत्थर मिश्रित माटी के लौंदे से अनावश्यक, बाधक तत्त्वों को अलग कर, छने हुए विशुद्ध जल के मिश्रण से उसमें मार्दवता ला कर, मुलायमियत उपजा कर, लचीलेपन के गुण से सम्पन्न कर, कुशल कुम्भकार किस प्रकार घड़े के स्वरूप को गढ़ता है, इसी का आख्यान इस खण्ड में किया गया है। (२) द्वितीय खण्ड – 'शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं' के अन्तर्गत माटी में समुचित मात्रा में पानी के मिश्रण से उपजी मृदुता से घड़े के गढ़े जाने की प्रक्रिया के आगे बढ़ाने का दृश्य है । शिल्पी अपनी सरलता के कारण गरीबी में ही गुज़र-बसर करता है और उसी में सन्तुष्ट भी है। प्रकृति तत्त्वों के निकट रहने में ही अपना भला समझता है। पानी सोख कर मिट्टी फूलती है, गदराती है। माटी के खोदने के क्रम में एक काँटे पर कुदाली जो लगती है तो उस काँटे से भी कुम्भकार का संवाद होता है । कुम्भकार अपने सहनशील स्वभाववश "खम्मामि खमंतु मे-/अर्थात् मैं क्षमा करता हूँ सबको, क्षमा चाहता हूँ सबसे" (पृ. १०५) के अनुरोध से बदला लेने के क्रूर भावों से उसे अलग करता "बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, ...फूल से नहीं, फल से/तृप्ति का अनुभव होता है।" (पृ. १०६-१०७) इन जैसे उपदेशों से काँटे का हृदय भी पसीजता जाता है। कुम्भकार उसके पश्चात्ताप भाव को देख कहता है: “मन्त्र न ही अच्छा होता है/ना ही बुरा/अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है/स्थिर मन ही वह/महामन्त्र होता है।" (पृ. १०८-१०९) इसी क्रम में मोह की, मोक्ष की धारणाओं को भी कवि स्पष्ट करता है । साहित्य के सम्बन्ध में उसका कथन द्रष्टव्य है: "हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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