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मानवीय प्रज्ञा को उद्दीप्त करने वाला महाकाव्य : 'मूकमाटी'
प्रो. (डॉ.) महेन्द्र नाथ दुबे आचार्य विद्यासागरजी की श्री-मेधा से निस्सृत और पवित्र करों से विरचित 'मूकमाटी' कृति समीक्षा हेतु मुझे कुछ महीने पूर्व प्राप्त हुई। तब से मैं इसके पाठ में ऐसा निमग्न हो गया कि इसकी समीक्षा भी करनी होगी, यह भूल ही गया।
प्राय: ही ऐसी धारणा बनाने का अवसर हमारे विरक्त साधु संन्यासी-महात्मा देते हैं कि विरक्त हो जाने के बाद समाज से उनका कोई लेना-देना नहीं रह जाता। ऐसे विरक्त कदाचित् ही मिलते हैं जो संसार से स्वयं विरक्त होते हुए भी, लोक-कल्याण की भावना से बराबर ही समाज से जुड़े होते हैं। 'मूकमाटी' के पाठ से मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि आचार्यश्री विद्यासागरजी एक ऐसे ही विरल व्यक्तित्व हैं जो अपनी प्रत्येक साँस में लोक-कल्याण की ही चिन्ता करते रहते हैं। __'मूकमाटी' महाकाव्य के रूप में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तवन' में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने इसकी महाकाव्यीय महिमा के कई आधार स्पष्ट बतलाए हैं । परन्तु साहित्य की सामान्य काव्य-परम्परा की प्रचलित धारणाओं के साँचे वाले महाकाव्यों जैसा यह महाकाव्य नहीं है अपितु मानवीय प्रज्ञा को उद्दीप्त करने वाला ज्ञानोद्दीपक काव्य है । 'मूकमाटी' में माटी कतई ही मूक नहीं है बल्कि माटी के साथ-साथ इसमें वर्णित धरती, घड़ा, मछली, गधा, रसना, मौन, माटी की आस्था, शौर्य, नदी, रस, श्वान, सिंह, कछुवा, खरगोश, प्रभाकर, सागर, लेखनी, अवा, कुण्डल, कपोल, स्वर्ण कलश, पायस, झारी, रस, मच्छर, मत्कुण, दल, गज-दल, सर्प, नदी, आतंकवाद, रस्सी जैसे तत्त्व सभी-के-सभी मुखर हैं । अंग्रेजी काव्यशास्त्र में अरूप पदार्थों के रूपाकार की और अमानवीय मानवेतर तत्त्वों के मानवीकरण की योजना करने के अलंकार तो हैं, परन्तु इतने विराट धरातल पर अमूर्त के मूर्तीकरण और मानवेतर के मानवीकरण के उदाहरण वहाँ भी एकत्र कहीं नहीं मिलेंगे। इस काव्य में यह प्रक्रिया कहीं-कहीं तो इतनी अधिक मात्रा में है कि सहसा हास्यास्पद लगने लगती है, परन्तु जब हम देखते हैं कि यह सारी प्रक्रिया, वाणीहीन वर्ग का वाणीमय होकर मुखरित हो उठना, मात्र इसलिए है कि इनसे मानव का कल्याण हो तो इस लोक-कल्याणकामी दृष्टि के प्रति श्रद्धा होती है।
. 'मूकमाटी' काव्य मुक्त छन्दों में निबद्ध है । मुक्त छन्दों की तमाम सारी उन्मुक्तता के बावजूद उसमें ध्वनिगत और आरोहावरोहगत तान और लय का एक बन्धन अवश्य होता है । इस काव्य में वह बन्धन भी कहीं-कहीं ढीला हो गया है, जैसे:
0 “निशा का अवसान हो रहा है,/उषा की अब शान हो रही है।" (पृ. १) 0 "इनकी आँखें हैं करुणा की कारिका/शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें
मिलन-सारी मित्रता/मुफ़्त मिलती रहती इनसे ।" (पृ. २०२) कहीं-कहीं तो मुक्त छन्द, छन्द न होकर गद्य ही हो गया है, जैसे :
. “इसी प्रसंग में/प्रासंगिक बात बताता है
अपक्व कुम्भ भी/प्रजापति को संकेत कर।" (पृ.२१६)