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________________ 106 :: मूकमाटी-मीमांसा मानव-जीवन का स्वरूप निहित है और कला की सीमा में उसका कैसा मनोरम और प्रभावशाली विन्यास किया गया है ! माटी के माध्यम से कवि ने भावों और मानव के चिर-दिन की अनुभूतियों और कल्पनाओं के क्षेत्र को अभिव्यक्त किया है। बाह्य जगत् के आर्थिक या सैद्धान्तिक विभेदों के रहते हुए भी मनुष्य आखिर मनुष्य ही है। उसके आदर्श और उसकी मानवीयता सभी सभ्य युगों में एक-सी ही ऊँची रह सकती हैं। इस खण्ड में दर्शन शाब्दिक अभिव्यंजना द्वारा अभिव्यक्त हुआ है। तीसरे खण्ड में 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' जैसे दर्शन को चुना गया है। एक प्रकार से माटी के कुम्भ से जीवन की पूर्णता, उर्वरता और प्रकाशमयता का प्रतीक होने के साथ उसके सायुज्य और सर्वभूतहित के लिए उसके उपयोज्य भाव का भी प्रतीक है, मंगल बोध तो है ही। घट की परिपूर्णता और घट की परिपूरकता का ध्यान बना रहना चाहिए। यह कुम्भ निखिल विश्व की आकांक्षा का प्रतीक भी है जो प्रत्येक अभ्युदय को अपने द्रवण से भरना चाहिए। सत्य निर्मित नहीं किया जाता, उसे साधना से उपलब्ध किया जाता है । कवि या कलाकार को भी जीवन के किसी अन्तर्निहित सामंजस्य और सत्य की प्रतीति इसी क्रम से होती है-चाहे भाषा, छन्द और अभिव्यक्ति पद्धति उसकी व्यक्तिगत हो । कवि ने धरती को सर्वसहा कहा है । सन्तों का पथ यही है । कवि मुक्ता की बोरियों को राज मण्डली द्वारा भरवाता है । राजमुख से स्वयं यह ध्वनि निकलती है : “सत्य-धर्म की जय हो !/सत्य-धर्म की जय हो !!" (पृ.२१६) तन-मन पर संयम की बात उठाकर मन के संयम को उलझनमय कठिन (पृ. १९८) कहा है । नारी, अबला, स्त्री, सुता, दुहिता, अंगना आदि शब्दों के विग्रह से शब्दों की शक्ति बताई है। फूल और पवन की संवाद शैली से परहित की ओर संकेत है । इस काव्य को अध्यात्म कहना ही अधिक सार्थक है । कवि और काव्य का मूल्यांकन इस आधार पर होता है कि युग तथा साहित्य को उसकी देन क्या है ? महान् कवि विद्यासागरजी ने विस्तृत भावभूमि पर अकिंचन विषय लेकर काम किया है। वे एक सांकेतिक कलाकार हैं । अनुभूति का सत्य, भावना की सफल अभिव्यक्ति, युग-चेतना का ग्रहण और स्वस्थ जीवन-दर्शन कवि की महानता के परिचायक हैं। । 'मूकमाटी' का चिन्तन कवि के गम्भीर, विशद अध्ययन का परिचायक है । इसमें चिन्तन का क्षेत्र इतना व्यापक है कि जीवन की समस्याओं पर मौलिक विचार और स्वतन्त्र धारणाएँ सहज सुलभ हैं । समस्त चिन्तन-मनन काव्य से एकाकार हो गया है । काव्य में अध्यात्म और अध्यात्म में काव्य है । दर्शन की स्वर लहरी भी मौजूद है। महाकाव्य विशेष काव्य रूप तथा शैली का बोधक होता है। पश्चिम में महाकाव्य का स्वरूप सर्वप्रथम संकलनात्मक प्रणाली पर आरम्भ हुआ । परम्परा से बिखरी हुई सामग्री का उपयोग कलाकार महाकाव्य में कर लेता है। युग की समस्त वस्तु का समाहार उसमें हो जाता है । संसार के सभी महान् काव्य अपने समय की चेतना से सम्बद्ध होते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति, समस्या का विश्लेषण उसमें रहता है । 'मूकमाटी' अपने जीवन-दर्शन, काव्य-सौष्ठव, मुक्त छन्द, मानवीय व्यापार के आधार पर महाकाव्य का पद प्राप्त करती है। यह विद्यासागरजी की सर्वोत्तम कृति के रूप में हिन्दी में आई और एक निधि बनकर रहेगी। कवि के शब्दों में : “कृति रहे, संस्कृति रहे/आगामी असीम काल तक जागृत' 'जीवित "अजित !/...हित स्व-पर का यह निश्चित निराकृत होता है !" (पृ. २४५-२४६)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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