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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 97 ही कुम्भ की काया कान्ति से दमक उठी, आत्मा उज्ज्वल हुई । अग्नि ने कुम्भ को सम्बोधित कर ध्यान की महत्ता समझाई । कुम्भ को इससे साहस और उत्साह मिला । अग्नि ने आगे और भी इसे समझाया कि दर्शन का स्रोत मस्तिष्क है। स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना बहता है । अध्यात्म के बिना दर्शन का दर्शन नहीं। निर्विकल्पक अध्यात्म ही सदा सत्य, चिद्रूप, भास्वत होता है। ___ शिल्पी दर्शन एवं अध्यात्म की इस मीमांसा में खो गया। प्रभात हुआ। अवा का अवलोकन किया गया। अग्नि की अग्नि-परीक्षा पूर्ण हुई । कुम्भकार ने अवा की रेतीली राख को हटाया। कुम्भ को पका हुआ देख प्रसन्न हुआ कि साधना सफल हुई। कुम्भ भी अपने को मुक्त हुआ जानकर प्रसन्न हुआ और उसने भावना भाई कि मेरा पात्र-दान किसी त्यागी को होना चाहिए। इधर नगर के सेठ ने स्वप्न देखा कि वह मंगल कलश ले सन्त का स्वागत कर रहा है । अपने को धन्य मान उसने कलश लाने को सेवक भेजा । सेवक ने कुम्भकार के पास पहुँचकर कुम्भ को माँगा। सेवक ने उसे उठाकर कंकड़ से बजाया तो ध्वनि निकली-'सा रे ग म प ध नि । मानो कहता हो कि सारे गम, पद नहीं हैं अर्थात् दुःख आत्मा का स्वभाव नहीं है।' ध्वनि सुन सेवक चमत्कृत हुआ। मन मन्त्रित हुआ, तन तन्त्रित हुआ। शिल्पी के शिल्पन चमत्कार पर चेतन-चित्-चमत्कार का भाव हुआ। उसे सेवक सेठ के घर ले आया । सेठ ने सोल्लास कुम्भ को हाथ में ले उस पर चन्दन से स्वस्तिक बनाया और चार बिन्दियाँ बना दी, जो संसार को सुख-शून्य चारों गतियों और सबको स्व की उपलब्धि को बतला रहा था । कुम्भ को मांगलिक पदार्थों से सजा कर सेठ हाथों में उसे ले कर साधु के आगमन की प्रतीक्षा में द्वार पर खड़ा हो गया। अतिथि का आगमन हुआ । अभिवादन में 'जय हो, जय हो, जय हो; नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु; अत्र, अत्र, अत्र; तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ' की ध्वनि पूँज गई। साधु का घर में प्रवेश हुआ। विधिवत् पाद-प्रक्षालन किया गया। वीतरागी, निर्मोही सन्त ने अंजुलि-मुद्रा छोड़ दी। कायोत्सर्ग कर, पाणिपात्र में आहार ग्रहण किया। आहार हो जाने पर जब कायोत्सर्ग पूर्ण हुआ तब सेठ ने अतिथि के हाथों में मयूरपंखोंवाला संयमोपकरण और प्रासुक जल से परिपूर्ण शौचोपकरण कमण्डलु दिया । साधु ने सदुपदेश दिया कि स्व में लीन हो जाओ । पुरुष>परमतत्त्व>परमात्मा ही प्राप्त करने योग्य है । अनन्तर साधु गन्तव्य की ओर चल पड़े। __सन्त का अधिक सत्संग न पा सेठ कुछ खिन्न हुआ तो कुम्भ ने सेठ को सन्तों की महिमा समझाई । सेठ को कुम्भ में साधुत्व के दर्शन हुए। कुम्भ का मान बढ़ा । इसे देख स्वर्ण कलश को ईर्ष्या हुई । वह आक्रोश में बोला-'यह सभ्य व्यवहार-सा नहीं लगता कि मिट्टी को माथे पर और मुकुट को पैरों में पटका जाय । मानता हूँ कि अपनाना, अपनत्व प्रदान करना, पर को अपने से भी पहले समझना सभ्यता है, प्राणीमात्र का धर्म है पर उच्च उच्च ही होता और नीच नीच ही रहता है।' अभ्यागत सन्त पर भी छींटाकशी की गई। यह असहनीय तिरस्कार था। मिट्टी के कलश से भी न सहा गया । वह बोला-'तुम स्वर्ण हो, पर तुममें पायस ना है, तुम्हारा पाय (पैर) सना है पाप पंक से, अत: पूरा अपावन है । तुम्हें पावन की पूजा रुचती नहीं है, पर-प्रशंसा शूल-सी चुभती है । माटी को सम्मान दो, क्योंकि तुम भी उसी माटी में जनमे हो । वह तुम्हारी माँ है । वह द्रव्य अनमोल है जो दुःखी-दरिद्री को देखकर द्रवीभूत होता है । माटी स्वयं भीगती है दया से और औरों को भी भिगोती है। माटी में बोया गया बीज समुचित अनिल एवं सलिल पाकर पोषक तत्त्वों से परिपुष्ट होकर सहस्र गुणित हो फलता है। तुम यदि यथार्थ में सवर्ण होते तब प्रतिदिन दिनकर का दुर्लभ दर्शन तो करते। क्यों बहुत दूर भूगर्भ में गाड़े जाते रसातल में ? नीरस हो, बन्धक हो, परतन्त्र जीवन की आधारशिला हो, अभेद्य दुर्गम किला हो । स्व एवं पर में भेद जानो । भेद विज्ञान ही श्रेयस्कर है । संसार बन्धन में कारण है विषयों में रसिकता और भोगों की दासता । ऋषि-मुनि-यति भी इसी मिट्टी की शरण लेते हैं। इसी पर शयन करते हैं।' यहाँ झारी,
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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