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________________ 98 :: मूकमाटी-मीमांसा चम्मच, घृत, केसर आदि का नोक-झोंक पूर्ण संवाद बड़ा दिलचस्प है। एक पक्ष का संकल्प पूर्ण हुआ। कृष्ण पक्ष का आगमन हुआ। सेठ ने निद्रा की गोद में सोने का प्रयास किया कि मन्द शीतल पवन के साथ खिड़की के द्वार से एक मच्छर ने शयन-कक्ष में प्रवेश किया। प्यासा था, प्रदक्षिणा की । मन्त्र जपा, पर कृपा न हुई। ये देख पलंग में स्थित मत्कुण ने कहा- ये मनु-सन्तान, महामानव हैं। ये अपने लिए ही परिग्रहसंग्रह करते हैं। सेवकों से प्राय: अनुचित सेवा लेते हैं और वेतन का वितरण भी अनुचित ही करते हैं।' सेठ से कहता है-'सेठ ! सूखा प्रलोभन मत दिया करो, कुछ स्वाश्रित जीवन भी जिया करो।' मच्छर और मत्कुण में कुछ देर बहुत ही रोचक संवाद चलता है जो सारगर्भित है। सेठ ने सुना, प्रसन्न हुआ और उसने अपने को कुछ प्रशिक्षित-सा अनुभव किया किन्तु वह दाहज्वर से पीड़ित हो गया। प्रात: अनुभवी चिकित्सा-विद्या-विशारद वैद्यों को बुलवाया गया। वैद्यों ने कहा-'दाहज्वर है । मात्र दमन से कोई भी क्रिया फलवती नहीं होती, तन के अनुरूप वेतन और मन के अनुरूप विश्राम भी चाहिए।' उपचार प्रारम्भ हुआ। किन्तु जहाँ तक पथ्य की बात है, सभी शास्त्रों का एक ही मत है । बस पथ्य का सही पालन हो तो औषध की आवश्यकता नहीं। श, स, ष- ये तीन बीजाक्षर हैं। इनके उच्चारण में पूरी शक्ति लगाकर श्वास को भीतर ग्रहण कर नासिका से ओंकार ध्वनि के रूप में बराबर बाहर निकालने से अन्तरंग में निविष्ट कषाय और पाप-पुण्य का शमन हो जाता है । और बाह्य भू ही शरण है । भू की पुत्री माटी का टोप बना कर सिर पर ज्यों ही रखा गया तो सेठ की चेतना लौटने लगी। प्राकृतिक उपचार से सेठ स्वस्थ हो गया। उसने पारिश्रमिक देकर वैद्यों को विदा किया। वैद्य दल ने भी यह सब चमत्कार माटी के कुम्भ का ही बतलाया । इतना सुनते ही पुन: एक बार स्वर्णकलश विवर्णवदन हो जाता है। उसे ऐसी आशा नहीं थी अपने तिरस्कार की । वह विचार करता है कि यह सब कलिकाल का प्रभाव है कि यह संसार मौलिक वस्तुओं के उपभोग को छोड़ लौकिक उपचार में तत्पर हो रहा है । झिलमिल मणिमालाओं, मंजुल-मुक्तामणियों, उदार हीरकहारों, तोते की चोंच को लजाते गूंगे-से मूंगे और नयनाभिराम नीलम के नगों को छोड़ मिट्टी के लेप से उपचार किया जाता है । स्वर्ण-रजतादि के पात्रों को छोड़ इस्पात के पात्रों को खरीदा जा रहा है जिनसे हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ बनती हैं और लोग चन्दन, घी तथा कपूर का त्याग कर माटी-कर्दम का लेप करते हैं । वस्तुओं को समेट कर मितव्ययता का ढोंग रचते हैं। इसी चिन्तन से उसमें अहं जागा और उसने आतंकवाद का सहारा पा लिया। प्रतिशोध की भड़की भीषण ज्वाला को देख कुम्भ ने सेठ को सचेत किया और सपरिवार तुरन्त पीछे के द्वार से भाग जाने का संकेत किया। सेठ के हाथ में पथप्रदर्शक कुम्भ है और पीछे-पीछे चल रहा है उसका सारा परिवार । वन-उपवन, झाड़ियों से गुज़रता, सिंह से पीड़ित गजयूथों को अभय देता आगे बढ़ रहा था कि सहसा आतंकवाद का हमला हुआ । गजों और नागों ने उन्हें बचाया । आतंकवादी के मार्ग में मन्त्रबल से अचानक काली मेघ घटाएँ छाईं, प्रचण्ड पवन प्रवाहित हुआ। वृक्ष शीर्षासन करने लगे और मोर नाचने लगे। मूसलधार वर्षा होने लगी। चारों ओर घटाटोप छा गया। सर्वत्र जल ही जल नज़र आया। बादल शान्त हुए। परिवार का मन लौटने को हुआ तो कुम्भ ने मना किया और बोला-'अभी आतंकवाद गया नहीं है । नदी में नया नीर है, बड़ा बाढ़-वेग है, जिसे अभी पार करना शेष है । कृत संकल्प दृढ़ है। लो, मेरे गले में बाँधो रस्सियाँ और परस्पर में एक-दूसरे को कमर से पकड़ लो, ओम् का उच्चारण करो और नदी में कूद पड़ो, मैं तुम्हें उस पार पहुँचाऊँगा।' हुआ भी ऐसा ही । कुम्भ के सहारे वे नदी में कूद पड़े । सब जलमग्न, मात्र मस्तक-मुख ऊपर थे। महायान चल पड़ा । मत्स्य, मगरमच्छ और सर्पादि आए, उन्हें खाने की चाह बढ़ी पर अनेक मैत्रीपूर्ण भावों से
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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