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________________ 96 :: मूकमाटी-मीमांसा बदलियों को प्रभाकर का यह प्रवचन बहुत अच्छा लगा। उन्होंने सागर का साथ न दे, मोती बरसाए । कुम्भकार अन्यत्र गया हुआ था कि मोतियों की बरसात को सुन सभृत्य राजा पधारे । मौका पा मोती समेटने लगे । गगन में गम्भीर गर्जना हुई। अनर्थ हो रहा है, अर्थ प्राप्ति के लिए स्वयं पुरुषार्थ करो।' समीचीन कथन है, पर द्रव्य मिट्टी है'परद्रव्येषु लोष्ठवत्'। तभी कुम्भकार आ गया। उसने राजा से क्षमायाचना की । घट ने व्यंग्य किया-'जलती बत्ती को छूते ही जल गए न । लक्ष्मण-रेखा को लाँघने वाला अवश्य दण्डित होता है। कुम्भकार ने मोतियों की गठरियाँ राजा को समर्पित कर उसे विदा किया। लजीली-सी बदलियों को लौटते देख सागर क्षुब्ध हुआ। उसने उन्हें स्त्री रूप होने से 'चला' कहा । कारण, उसका मत था कि चापल्य स्त्री जाति का स्वभाव है, अत: उसे कुल-परम्परा, संस्कृति का सूत्रधार नहीं बनाना चाहिए। प्रभाकर को यह कहना बुरा लगा । उसने जलधि में बड़वानल प्रज्वलित कर सागर को जलाना प्रारम्भ कर दिया। सागर कम न था। उसने तीन बादल भेज दिए, जिससे प्रभाकर ढक गया। प्रभाकर ने भी अपने करतेज से प्रहार करना शुरू किया कि सागर ने राहु को उकसा दिया। राहु ने उसे ग्रस लिया । चारों ओर अँधेरा छा गया । चर-जगत् व्यथित हो उठा। कण-कण ने माँ धरती से गुहार की । कृपा हुई। धरती ने कणों को आदेश दिया । वे प्रभंजन बन गए। घनों के ऊपर विघ्न छा गया, वे भागने लगे। जलधि ने और घन भेजे । इन्द्र प्रच्छन्न रूप में इन्द्रधनुष तान कर अवतरित हआ। धनुष तान उसने घन का तन भेद दिया । बिजली चमकी, वज्रपात हआ। बादल फट-फट कर रो पड़े। किंकर्तव्यविमूढ़ से वे जलकण पत्थरों-सम ओलों से मारने लगे । अविराम युद्ध चलता रहा । स्थितप्रज्ञ कुम्भकार इसे निहारता रहा । इस धर्म-संकट में अपने स्वामी को फँसा देख गुलाब पौध ने गन्धवाहक प्रियमित्र को स्मरण किया । दुर्दिन में फँसे मित्र को संकट से निकालने में सक्षम प्रभंजन ने बादलों पर आक्रमण कर दिया । शत्रु का पीछा किया गया। जहाँ से वे आए थे, वहीं उन्हें धकेल दिया गया। समुद्र पर पहुँचते ही बादल चुप न रहे। जल पड़ते ही सागर का क्रोध भी शान्त हो गया। ___नभ स्वच्छ हुआ, प्रभात हुआ। सूर्य निकला, नूतन आलोक फैला | सभी प्रमुदित और प्रसन्न हुए। धरती की प्रतिष्ठा बनी रही, पर शिल्पी रूप गुरु कुम्भकार अनासक्त रहा । यह देख कुम्भ ने कहा- 'यह सार्वभौमिक सत्य है कि परीषह-उपसर्ग के बिना स्वर्ग-अपवर्ग की उपलब्धि कभी नहीं होती।' अपरिपक्व कुम्भ की इस आस्था पर शिल्पी को आश्चर्य हुआ और आशा बँधी कि साधक समुचित मार्ग पर आरूढ़ है । वह बोला- 'तुम्हें इतने ही थोड़े समय में इतनी अधिक सफलता मिलेगी, सोचा न था । कारण, बड़े-बड़े साधक हाँफते और घुटने टेकते हुए देखे हैं। पर तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी। सुनो ! अभी तुम्हें आग का दरिया पार करना है और वह भी भुजाओं से तैर कर ।' यहीं कुम्भ कहता है कि साधक की अन्तर दृष्टि में जल और ज्वलनशील अनल में अन्तर शेष नहीं रह जाता । उसकी साधना की यात्रा निरन्तर भेद से अभेद एवं वेद से अवेद की ओर बढ़ती चली जाती है। खण्ड -४. 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' नवकार-मन्त्र के उच्चारण के साथ अवा लगाया गया । बबूलादि की लकड़ियाँ चुनी गईं । आग दी गई। लकड़ियों ने अपनी अन्यमनस्कता दर्शाई तो कुम्भकार शिल्पी ने मीठे वचन कहे- 'नीचे से निर्बल को ऊपर उठाना उत्तम है। कुम्भ के जीवन को ऊपर उठाना है।' लकड़ी ने उदारता समझी और हुई आग को समर्पित । कारण, अग्निपरीक्षा के बिना किसी को मुक्ति नहीं । सदाशय और सदाचार ही जीवन की सही कसौटी है । शिष्टों पर अनुग्रह, दुष्टों का निग्रह ही धर्म का लक्ष्य है। स्व एवं पर-दोषों को जलाना ही परम धर्म है । पूरा का पूरा अवा धूम से भर उठा। कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम किया। यही ध्यान-सिद्धि में साधकतम है और नीरोग योगतरु का मूल है। अग्नि का स्पर्श पाते
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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