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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 95 भान कहाँ ?' चेतन की क्रियाशील शक्ति, जो अवैतनिक है, निरन्तर सक्रिय रहती है। शिल्पी का अंग-अंग भी यन्त्रसम संचालित हो जाता है। मिट्टी पुन: उसे जगत् की यथार्थता समझाती है : 'सं अर्थात् समीचीन, सार अर्थात् सरकना, जो सम्यक् रूप से सरकता है, वह संसार' है । अहर्निश संसरण करना, चलते रहना ही संसार है। मैं भी संसरणशील हूँ। मेरा चार गतियों और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण होता रहा है।' ___कुम्भकार ने मिट्टी का लोंदा बनाया । चाक पर रख, डण्डे से उसे घुमा कर मिट्टी के पिण्ड को एक मनोज्ञ घट का आकार दिया । चाक से घट को उतारा गया। उस पर ९९, ६३ और ३६ के अंक अंकित किए। ९९ का अंक ९९ के फेर में पड़ने से सत्त्वों को रोक रहा है तो ६३ की संख्या संसार में उत्पन्न होने वाले महाप्रतापी, महाकारुणिक ६३ महापुरुषों की गुण-गौरव-गाथा गाती है । ३६ के अंक में तीन की संख्या जोड़ने से यह जगत् के समस्त प्रचलित ३६३ मतों को बतलाती है । इसके अतिरिक्त घट पर सिंह, श्वान, कच्छप और खरगोश आदि के अनेक अन्य चिह्न बने हैं। ये सभी मायाचार, स्वतन्त्रता, परतन्त्रता, सभ्यता, समानता, प्रमाद, अप्रमाद, एकान्तवाद, अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के बोधक हैं। कुम्भ पर ये भी लिखे हैं- 'कर पर कर दो', 'मर हम मरहम बनें, 'मैं दो गला' अर्थात् पाप पाखण्ड से दूर हट कर सही उद्यम करें, मर कर हम अगले भव में मरहम बनें और मैं दोगला हूँ यानी छली, धूर्त, मायावी हूँ। अज्ञान एवं अभिमान के कारण इस छद्म को छुपाता रहता हूँ किन्तु यह यथार्थ है कि मैं अर्थात् अहं (गर्व) को गला दो। तब कल्याण निश्चित है। खण्ड -३. 'पुण्य का पालन :पाप-प्रक्षालन' वसुन्धरा वसुधा कहाँ रही ? धरा का निखिल वैभव लूटपाट कर जलधि रत्नाकर बन गया। मोह-मूर्छा का अतिरेक पर-सम्पदा हरण है। निन्द्य कर्म करके जलधि ने जड़धी (बुद्धिहीनता) का परिचय देकर नाम सार्थक किया, किन्तु न्यायी सूर्य से यह अन्याय देखा न गया। उसने जल को जला-जलाकर वाष्प बना दिया। दूसरी ओर लक्ष्यहीन चन्द्र ने जल तत्त्व का पक्ष लिया और जलधि में ज्वार-भाटा ला दिया। फिर धरती से अकृतघ्नी सागर को अगणित मुक्ता मिले । सुधाकर का क्रोध और बढ़ गया। उसने जलधि को प्रेरित कर शुक्ल-पद्म-पीतलेश्या वर्ण रूपधारी तीन बदलियों को भेज दिया । बदलियों की छवि का कवि ने दिव्य वर्णन किया है। इसी के बहाने उसने नारी, महिला, अबला, स्त्री, सुता, कुमारी, दुहिता और अंगना जैसे नारी के पर्यायवाची शब्दों की सुन्दर निरुक्तिपरक व्याख्या कर डाली। जो किसी की शत्रु नहीं है और जिसका कोई शत्रु नहीं है यानी न+अरि, वह 'नारी' है । जीवन में मंगल (आनन्द, सुख) को लाने वाली, पुरुष में धृतिधारणी जननी के प्रति अपूर्व आस्था जगाने वाली महिला' है। 'महिला' वह भी है जो पुरुष में ज्ञान ज्योति लाती है । जो जीवन को जगाती है, वह अबला' है । भूत, भविष्य की आशाओं से चित्त को हटाकर, जो वर्तमान में आशाओं को लाती है, वह 'अबला' है। इसका एक और भी अर्थ है जो स्वयं बला अर्थात् संकट नहीं है, वह 'अबला' है । पुरुषार्थत्रय-धर्म, अर्थ एवं काम-में पुरुष को संयमित करने वाली 'स्त्री' कही जाती है । जो सुखसुविधाओं का स्रोत है, वह 'सुता' है । तो 'कु' अर्थात् पृथिवी की तरह माँ अर्थात् लक्ष्मी, सुख-सम्पदा को 'री' अर्थात् देने वाली है, वह 'कुमारी' है। 'दुहिता' में दो भाव छिपे हैं। एक तो 'दु' अर्थात् दुष्ट, गिरे हुए पतित से भी पतित पति को जो हित अर्थात् कल्याण में लगाती है, वह 'दुहिता' है। दूसरा यह कि वह उभय कुलवर्धिनी (माता एवं पिता पक्ष), सुख सर्जनी होने से भी 'दुहिता' कहलाती है। प्रमातृ' अर्थात् ज्ञाता होने से 'माता' वही है, और जो मात्र अंग नहीं, वह अंगना' है अथवा अंग के अतिरिक्त अन्तरंग में और भी बहुत कुछ है, जिसे देखने का यत्न करें, वह अंगना' है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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