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94 :: मूकमाटी-मीमांसा
से कुएँ में छोड़ा। विचित्र वातावरण है वहाँ, बड़े छोटे को निगल जाता है। लोहा लोहे को काटता है । मछली को शरण मिली, जीने की आशा जमी । मोह की मात्रा विफल हुई । मोक्ष की यात्रा सफल हुई। दया धर्म की प्रभावना बढ़ी। मछली ने मिट्टी के चरणों का जल से प्रक्षालन कर उसे वन्दन किया और उससे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का पाठ पढ़ा । मिट्टी ने उसे सत् एवं असत् की परिभाषा स्पष्ट की। सत् को सत् समझना सत्युग है और सत् को असत् जानना ही कलियुग है। कलि शव है, सत् शिव है । सत्-युग समष्टि की ओर देखता है जबकि कलियुग व्यष्टि पर अपनी दृष्टि घुमाता है । साक्षात् शिवायनी मिट्टी की बात मछली की समझ में आ जाती है। उसे अब आधि से भय नहीं, न ही व्याधि से, उपाधि भी अनिष्टकर है । एकमात्र समाधि ही इष्ट है । वह माँ से प्रार्थना करती है-'हे माँ मिट्टी ! मुझे सल्लेखना दे दो, बोधि का बीज उल्लेखना दो।' सही सल्लेखना है-कषाय एवं काया को कृश करना, ना कि मात्र काया को घटाना। मछली समाधि में लीन होने तत्पर हो जाती है । उसे पुन: जल में छोड़ दिया जाता है । यही ‘दयाविसुद्धो धम्मो' है। खण्ड -२. 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'
कुम्भकार ने मिट्टी में जल मिलाया। मिट्टी में नूतन चेतना आई, जल को ठहराव मिला। मिट्टी को फूलने का समय मिला। शिशिर का समय है, रातें बड़ी हैं और दिन होते हैं छोटे । शिल्पी स्व-कार्य में तल्लीन है, पर उसकी रातें कटें तो कैसे करें, कारण कि तन पर एक पतली-सी चादर मात्र है। मिट्टी ने सुझाव दिया- क्यों न आप कम से कम एक कम्बल अपनी काया पर ले लें।' उत्तर मिला-'यह तो कम बल वालों का कार्य है । मैं राम का दास हूँ, राम के पास सोता हूँ, मुझे कम्बल रूप सम्बल की भला क्यों आवश्यकता ? दूसरे, गर्म चर्म वाले ही शीत से भयभीत और नीत कर्म के विरुद्ध होते हैं किन्तु मैं तो शीतशीला हूँ और ऋतु भी शीतशीला है। दोनों का स्वभाव-साम्य है । स्व-स्वभाव में रहना ही वस्तु का धर्म है- 'वत्थुसहावो धम्मो' ।'
मिट्री का मौन होना, कुम्भकार का अपने कार्य में लग जाना, मिट्री का फलकर स्नेहिल होना उसका हर्ष है। कुदाली की चोट से क्षत-विक्षत एक नन्हा-सा निशा के आँचल में से झाँकता चकित चोर-सा काँटा शिल्पी से बदला लेने तत्पर हुआ। तभी मिट्टी ने उसे सम्बोधित किया कि बदले का भाव राहु है जिससे भास्वत चेतना-भानु अन्तर्धान हो जाता है । इस बदले की आग में पर का नहीं, स्व का ही विनाश होता है । यह सुनते ही निकटस्थ सुरभित गुलाब के पौधे से शूल-दल बोला-'मानते हैं कि दूसरों की पीड़ा-शल्य में हम निमित्त हैं, इसी कारण तो हम शूल हैं । परन्तु इसमें काँटे का कोई दोष नहीं। कामदेव का शस्त्र फूल है, जिसमें पराग है, सघन राग भी है और जिसका फल संसार है। दूसरी ओर महादेव का शस्त्र शूल है, जिसमें विराग है, अन्याय (पाप) का त्याग है और फल भी जिसका भवपार है । एक औरों का दम छीनता है तो दूसरा बदले में दम भर देता है । मद दुःख है और दम अर्थात् शान्ति ही सुख है। कभी फूल शूल बन जाते हैं तो कभी शूल भी तो फूल बने नज़र आते हैं। फिर भी काँटे के मन में प्रतिशोध की फाँस अटकी ही रही। तभी मिट्टी बोली- 'अरे सुनो! तुम शील स्वभावी शिल्पी को नहीं पहचानते । वह तो दयासागर है, क्षमा का अवतार है।' शिल्पी के मुख से भी निकल पड़ता है-'खम्मामि, खमंतु मे- क्षमा करें मुझे, मैं क्षमा माँगता हूँ।' शिल्पी के इस अश्रुतपूर्व वचन से तुरन्त काँटे का क्रोध शान्त होता है और बोध का फूल खिल उठता है।
कुम्भकार ने मिट्टी को और अधिक मसला, पैरों से रौंदा तो मिट्टी ने मौन साध लिया। किन्तु शिल्पी की रसना, नासा और आँखें कब मौन और स्थिर रह सकती थीं। इन सभी ने शिल्पी को साहस जुटाया। आस्था की जोत जगी। आस्था का दर्शन आस्था में निहित है, चर्म-चक्षुओं में नहीं । निष्ठा और आस्था दोनों एक हैं। निष्ठा की फलवती प्रतिष्ठा ही प्राण-प्रतिष्ठा है । मिट्टी का यह वचन सुनते ही शिल्पी का चेतन सजग हुआ और उसने भी अपना आशय दर्शाया- 'वेतनभोगी वतन को भूल जाते हैं तो सचेतन अपने तन को भुला देते हैं। कार्य की व्यग्रता में कर्ता को स्व का