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92 :: मूकमाटी-मीमांसा
जहाँ रात्रि नहीं, वहाँ रात्रिकर कैसे, और जब दिवाकर ही नहीं तो दिन भी कैसा ?
- वैसे ही नदी बह रही है बड़ी तेजी से सागर की ओर, जैसे सद्गात्री यात्री अपने कल्याणमार्ग में बढ़ता हुआ पीछे, मुड़कर नहीं देखता । नदी तट की मिट्टी माँ धरती से कहती है-'हे माँ ! मैं पतिता हूँ, पद-दलिता हूँ, निन्दिता हूँ, तिरस्कृता हूँ, मन्द-भागिनी परित्यक्ता हूँ । नहीं जानती कि अभी कितनी और वेदनाएँ सहनी हैं, जिनका न कोई अन्त है और न कोई छोर ही। बदसूरत हूँ जिसे देख दूसरे दु:खी न हों, अत: मुख पर घूघट (पर्दा) डाल लेती हूँ। अपनी घुटन छिपाती हूँ, कष्ट के दो घूट आँसू पी लेती हूँ । जी रही हूँ पर कहने मात्र को ही । माँ, बतलाओ ! इस पर्याय की इतिश्री (अन्त) कब होगा ? मेरी काया कब बदलेगी, मेरा यह जीवन उन्नत कब होगा ? कहो, माँ ! मुझे अविलम्ब सहारा दो, मेरे कष्ट हरो।' यह है आज के भारत की नारी की व्यथित कथा, जिसका समाज एवं राष्ट्र के समक्ष स्पष्ट चित्रण प्रस्तुत किया गया।
इतना सुन माँ के हृदय को भी देखिए । माँ तो माँ ही है, सरल हृदय, तरल आँखें, छल-कपट का नामोनिशान भी चेहरे पर नहीं, मस्तक गम्भीर चिन्तन के उत्कर्ष से दीप्त है । बेटी को दुर्गत दशा में अपने सामने खड़ा देखकर उसका हृदय हर्षोन्माद से भर जाता है । परस्पर अलगाव से विरहित अपूर्व आत्मीयत्व के संस्पर्श से दोनों ओत-प्रोत हैं। धैर्यधारिणी माँ कहती है- 'बेटा !' माँ की वह बेटी नहीं बेटा है, पुत्र है, पुत्री नहीं, कारण कि उसे हीन जो समझा जाता है, आज के समाज में । यही बिडम्बना है पर सत्ता शाश्वत है, किन्तु उसकी प्रतिसत्ता में उत्थान-पतन की अनेक सम्भावनाएँ समाहित हैं। जैसे खसखस का दाना देखने में छोटा है, परन्तु उसी वट बीजरूप दाने को समुचित क्षेत्र में बो दिए जाने पर एवं समय-समय पर खाद, पानी एवं हवा के मिलने से वही एक महान् वृक्ष का रूप ले लेता है, ऐसे ही अणु-परमाणु से इस जगत् का निर्माण हुआ है । अत: सत्ता शाश्वत होते हुए भी भास्वत होती है।
_देखें, यह स्वच्छ जलधारा पृथ्वी पर पड़ते ही मैली हो जाती है, कीचड़ बन जाती है, वही नीम की जड़ में पहुँचकर कडवी. सागर में गिरकर नमकीन और सर्प के मख में पडकर हलाहल बन जाती है और वही सीपी में पड़ जाती है तो मोती बन जाती है। जैसा संयोग-वैसी बुद्धि, जैसी बुद्धि-वैसी ही गति' होती है, पर्याय मिलती है। अनादिकाल से ऐसा आ रहा है. हो रहा है और होता रहेगा। इसलिए स्वयं पर विश्वास कर स्वयं का कल्याण करो। बद्ध ने भी 'धम्मपद' (अत्तवग्गो/१६०) में ऐसा ही कहा है-“अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया।"
___ अपने को गिरा हुआ, हीन मत समझो। सत्य को पहचानो। दृष्टि दूरदर्शी है, लक्ष्य पवित्र है तो साधन भी वैसे ही होने चाहिए। असत्य की सही पहचान सत्योपलब्धि है । पाताल में गिरने का अनुभव ही उन्नति की उँचाइयों की आरती उतारना है । आस्था के विषय को आत्मसात् करना ही स्वानुभूति करना है पर यह बिना ध्यान, साधना के सम्भव नहीं। तलहटी में पहुँच कर, पर्वतशिखर का दर्शन हो जाता है, परन्तु गुरु-चरणों में पहुंचे बिना महानता के शिखर पर पहुँचना असम्भव है । विनय में ही अचूक शक्ति है कि कठोर से कठोर भी पसीज जाता है। आस्था अर्थात् श्रद्धा (तत्त्वों का यथार्थबोध) ही मानव-लक्ष्य मोक्ष की उपलब्धि का प्रथम सोपान है । निरन्तर अभ्यास से आस्था के स्थाई और दृढ़तर होने पर भी साधना-क्षेत्र में मजबूत, प्रौढ़, स्वस्थ व्यक्ति के भी पैर फिसलने की सम्भावना होती है, फिर भी पुरुषार्थ को नहीं छोड़ना चाहिए। ___माना कि साधना में अनेक बाधाएँ आती हैं किन्तु उन्हें ही समतापूर्वक पार करना, झेल लेना ही विषमता पर समता की विजय है। इसी से आस्था नहीं डगमगाती बल्कि स्थिर होती है, मति परिपक्व होती है । गति में ऋजुता एवं क्षिप्रता आ जाती है और लक्ष्यसिद्धि के निकट पहुँचने लगते हैं। इस प्रकार संघर्षमय जीवन का उपसंहार हर्षमय होता