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'मूकमाटी'
: एक महाकाव्य
डॉ. धर्मचन्द्र जैन
जगत् में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ हमेशा एक से एक बढ़कर तपोनिष्ठ साधु-सन्त, ऋषि-महर्षि एवं महापुरुष हुए हैं । उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं आचरणात्मक नैतिक मूल्यों की अजस्र धारा निरन्तर प्रवाहित की है, जिसमें अवगाहन कर लाखों सत्त्वों ने अपने को सफल बनाया है । ऐसे ही सन्त-मुनियों में एक हैं - हमारे आराध्य परमपूज्य आचार्य विद्यासागरजी महाराज । आगम साहित्य के गम्भीरज्ञाता, तार्किक विद्वान्, शील सम्पन्न, निस्पृही , कवि एवं आचार्य - प्रवर सदैव आत्म-साधना में तत्पर रहते हैं । महाप्रज्ञ एवं महाकारुणिक आचार्यश्री की तपस्तेज सम्पन्न एवं प्रसन्न मुखमुद्रा प्रायः सभी का मन मोह लेती है । इन्हीं सन्त की तपः पूत लेखनी से अनेक कृतियों का आविर्भाव हुआ है। इनमें 'नर्मदा का नरम कंकर, 'डूबो मत लगाओ डुबकी' और 'तोता क्यों रोता ?' प्रमुख हैं । आपके ही ज्ञानार्जन एवं अध्यात्म-साधना का एक और भी फल उपलब्ध है और वह है- 'मूकमाटी महाकाव्य' । यहाँ प्रकृत काव्य के महाकाव्यत्व की मीमांसा करना ही प्रमुख लक्ष्य है ।
सन्त,
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कतिपय मनीषी विद्वान् काव्यशास्त्रियों ने काव्य के लक्षण को स्पष्ट किया है । इसमें भामह, दण्डी एवं विश्वनाथ प्रमुख हैं। छठी शताब्दी के आचार्य दण्डी ने महाकवि भामह के विचारों को महत्ता देते हुए 'काव्यादर्श' (१/१४-१९) में काव्य उसे बतलाया है जिसमें सर्गों का निबन्धन हो । इसका प्रारम्भ आशीर्वाद, नमस्कार अथवा वस्तुनिर्देश से होता है। रचना का आधार ऐतिहासिक कथा या अन्य किसी उत्कर्ष कथा के आधार पर होता है । काव्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का फलदायक होना अपेक्षित है। काव्य का नायक भी चतुर तथा उदात्त होना चाहिए। काव्य नगर, पर्वत, ऋतु तथा चन्द्र और सूर्य के उदय अस्त, उपवन और जलक्रीड़ा, मधुपान तथा प्रेमोत्सव आदि के वर्णन से अलंकृत हो । काव्य को विरहजन्य प्रेम, विवाह, कुमारोत्पति, विचार-विमर्श, राजदूतत्व, अभियान, युद्ध तथा नायक के जय-लाभ आदि के मनोहर प्रसंगों से युक्त होना चाहिए। काव्य में रस तथा भावों की लड़ी जुड़ी हो। सर्ग बहुत लम्बे भी न हों । सर्गों के छन्द श्रवणीय, मनोज्ञ तथा अच्छी सन्धियों से सम्पन्न हों । काव्य लोकरंजन तथा अलंकारों से अलंकृत भी होना चाहिए। ऐसा उत्तम काव्य कवि की दृष्टि से महाप्रलय के बाद भी स्थिर रहता है।
किन्तु सर्वाधिक सुस्पष्ट एवं व्यवस्थित विवेचन १५वीं शताब्दी में आचार्य विश्वनाथ ने अपनी अनुपम रचना 'साहित्यदर्पण' (६/३१५ - २४ ) में किया है । वह लिखते हैं कि जिसमें सर्गों का निबन्धन हो, वह महाकाव्य कहलाता है। इसमें एक देवता या सद्वंश का उत्तम धीरोदात्त गुण सम्पन्न नायक होता है, कहीं एक वंश के अनेक कुलीन राजा नायक होते हैं। शृंगार, वीर और शान्त में से कोई एक अंगी रस होता है और अन्य रस गौण होते हैं । काव्य लिखित सन्धियों से युक्त होता है । कथा ऐतिहासिक अथवा लोकप्रसिद्ध सज्जन से सम्बद्ध होती है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षइस चतुर्वर्ग में से कोई एक फल होता है । प्रारम्भ में आशीर्वाद, नमस्कार या वर्ण्यवस्तु का निर्देश होता है । कहीं खलों की निन्दा और सज्जनों का गुणगान वर्णित होता है। काव्य में न तो बहुत छोटे और न ही अधिक बड़े आठ से अधिक सर्ग होते हैं। प्रत्येक सर्ग में एक छन्द होता है किन्तु सर्ग का अन्तिम पद्य भिन्न छन्द का होता है। कहीं-कहीं सर्ग में अनेक छन्द भी मिलते हैं । सर्गान्त में अगली कथा की सूचना होती है। इसके अलावा काव्य में सन्ध्या, सूर्य, चन्द्र, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार, दिन, प्रातःकाल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र, सम्भोग, वियोग, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, विवाह, यात्रा, मन्त्र और अभ्युदय आदि का सांगोपांग वर्णन होता है । काव्य का नामकरण कवि के नाम पर अथवा चरित्र के नाम से अथवा नायक के नाम से होना चाहिए। सर्ग की वर्णनीय कथा से सर्ग का नाम रखा जाता है।