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मूकमाटी-मीमांसा :: 89 कहीं भी रहता हो, उसके द्वारा अन्य कहीं पर भी रहने वालों के प्रति सदाशयता का भाव रखना ही मानवता है तथा यही सच्चा मानव धर्म है । कृति में आस्था के प्रति सजगता है और अनास्था का नकार निहित है । इसमें सन्देह नहीं कि कवि आचार्य श्री विद्यासागर श्रमण-संस्कृति के अध्येता हैं तथा जैनदर्शन के अद्भुत चिन्तक हैं। वीतराग- पथ के पथिक होने के साथ-साथ उस क्षेत्र के अध्ययनशील, प्रतिभासम्पन्न एवं ध्यानी- ज्ञानी - तपस्वी भी हैं । कृति का अध्ययन करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि कवि आचार्यश्री जैनदर्शन के साथ जीवनदर्शन के प्रति भी सजग हैं और मानवतावादी दृष्टिकोण के प्रति उदार हैं। कृति, उनके मौलिक चिन्तन के साथ भाषा के शाब्दिक - क्रम को अर्थ योजना के साथ इतनी गहराई से व्यक्त करती है। कि सामान्य शब्द अपने मूल अर्थ में असीम गहनता लिए है, यह प्रतीत होता है। काव्य-सौन्दर्य की अभिवृद्धि में उनके मौलिक अर्थ-सिंचन का अद्भुत महत्त्व प्रतिपादित होता है। 'मूक माटी' जैनदर्शन की गहराई को व्यक्त करने के लिए तत्पर है, जो सत्य के सन्निकट है, परन्तु वह केवल वहाँ तक सीमित न होकर मानवतावादी दर्शन और दृष्टिकोण से सम्पन्न महाकृति है एवं जीवन की सार्थकता के प्रति सजग एवं सचेत है। इसे मैं यहीं विश्राम देता हूँ तथा भविष्य में अवसर प्राप्त होने पर इसकी विस्तृत रूप से चिन्तना करने का प्रयास करूँगा ।
अहिन्दीभाषी के हिन्दी प्रेम की निदर्शक कृति : 'मूकमाटी'
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प्रो. (डॉ.) सागरमल जैन
आचार्य विद्यासागरजी दिगम्बर जैन परम्परा के आचार्यों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनकी त्यागनिष्ठा और अध्यात्मप्रियता लोकविश्रुत है । जन्म से अहिन्दीभाषी होते हुए भी उन्होंने हिन्दी भाषा में अपनी रचनाओं द्वारा एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया है। आपकी प्रस्तुत कृति 'मूकमाटी' आपके हिन्दी प्रेम का परिचायक तो है ही, साथ ही हिन्दी काव्य रचना के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। प्रस्तुत कृति चार खण्डों में विभक्त है। इसमें काव्य और अध्यात्म का जो तारतम्यभाव देखा जाता है, वह सामान्यतया अन्यत्र दुर्लभ है। दर्शन के गम्भीर प्रश्नों को भी आचार्यश्री ने जिस सहज ढंग से यहाँ प्रस्तुत किया है, वह निश्चित ही अत्यन्त मार्मिक है । सत् के उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक लक्षण को आचार्यप्रवर ने निम्न शब्दों में कितनी सहजता से स्पष्ट कर दिया है :
"आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन - उत्पाद है जाना यानी मरण - व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर - ध्रौव्य है
और/ है यानी चिर-सत् / यही सत्य है यही तथ्य !” (पृ. १८५)
वस्तुत: आचार्य श्री शब्द शिल्पी हैं। शब्दों में अध्यात्म को भर देना, यही उनकी विशिष्टता है। ऐसी महत्त्वपूर्ण कृति के लिए लेखक और प्रकाशक दोनों ही संस्तुति के पात्र हैं । ग्रन्थ की साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण त्रुटि रहित
है।
[सम्पादक - ‘श्रमण' (मासिक), वाराणसी - उत्तरप्रदेश, जून, १९८९ ]
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