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________________ 88 :: मूकमाटी-मीमांसा है । मनुष्य, मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार करता है और स्वयं को क्या समझता है, इसका निरूपण यों किया है : 66 '... खेद है कि / लोभी पापी मानव / पाणिग्रहण को भी प्राण- ग्रहण का रूप देते हैं / प्राय: अनुचित रूप से / सेवकों से सेवा लेते और/ वेतन का वितरण भी अनुचित ही ।" (पृ. ३८६-३८७) आतंकवादियों को उचित पथ की ओर ले जाने के सम्बन्ध में कवि ने एकत्व की स्थिति का वर्णन किया है। इसी के साथ दण्ड विधान के स्वरूप को यों निरूपित किया है : " जिसे दण्ड दिया जा रहा है / उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त । दण्डसंहिता इसको माने या न माने,/ क्रूर अपराधी को / क्रूरता से दण्डित करना भी एक अपराध है,/न्याय-मार्ग से स्खलित होना है।” (पृ. ४३१) कवि आचार्यश्री ने आधुनिक व्यवस्था के समक्ष प्रश्न उपस्थित किया है तथा काव्यगत व्यंजना को सजीव भी किया है - समाधान के रूप में । कवि का भाव-बोध जीवन के विकास के साथ है, न कि उसे नष्ट करने से सम्बद्ध है। कवि ने मानवेतर प्राणियों के माध्यम से जीवन के सत्य को समझाया है, उसमें क्षुद्र प्राणी मच्छर से लेकर गज सदृश विशाल प्राणी भी सम्मिलित हैं । कवि आचार्यश्री विद्यासागरजी की कृति 'मूकमाटी' आधुनिक भावबोध के साथ जीवनगत पहलुओं को चित्रित करती हुई, मूलगत भावनाओं को निरूपित करने में सक्षम है। इसमें जीवन का कौन-सा पक्ष नहीं है ? कवि ने बात करते-करते नूतन उद्भावनाओं को निरूपित किया है । जीवन के पक्ष को तत्त्व - चिन्तन के साथ ऊँचे-नीचे छोरों में से प्रवाहित करते हुए सत्य के सन्निकट पहुँचाया है। कृति प्रारम्भ से लेकर अन्त तक अपने कथ्य को विस्मृत नहीं होने देती तथा यह बराबर कहती रहती है कि विकास करो- अतथ्य के रूप में नहीं, सद्भावनाओं के साथ और जीवन के मूल के साथ। इसमें एक साथ पूजा, अर्चना, मानवीय भावनाएँ, गुण-अवगुण, जीवन की सार्थकता, साहस, उदारता आदि का समावेश है । लौकिक और पारलौकिक जीवन दृष्टि को सहज रूप में उपस्थित करने में कवि पूर्णत: सक्षम है । कृति एक साथ पठन, श्रवण और दर्शन - तीनों का आनन्द प्रदान करने में सक्षम है। कवि आचार्य श्री शब्दों की अभिव्यंजना में तो हिन्दी के, इनके पूर्व के, काव्यकारों को एक स्थान पर ठहराते हुए आगे बढ़ गए हैं। उसी के साथ दृष्टि की परिकल्पना का ऐसा सुन्दर संगुम्फन किया है कि पाठक आत्मविभोर हो उठता है । यह तो बात हुई कृति के काव्यत्व की । मैने इसी के साथ एक अन्य पक्ष का अनुभव किया है अभिव्यक्ति के आधार पर - वह यह कि कवि स्वयं किस प्रकार ज्ञान प्राप्ति के लिए अग्रसर हुआ और क्योंकर समुदाय को सत्पथ की ओर ले जाने के लिए तत्पर हुआ है । कवि ने स्वयं ही इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है कि जीवन की सार्थकता एवं महत्ता अन्यों को भी श्रेष्ठ मार्ग की ओर अग्रसर करने में ही है । यही कारण है कि कवि ने मछली के रूप में ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा का निरूपण किया है । तदनन्तर सबको श्रेष्ठ मार्ग की ओर ले जाने की भावना का प्रतिपादन किया । इस प्रकार प्रस्तुत कृति काव्य के राग तत्त्व को अभिव्यक्त करते हुए दर्शन के मूल को भी अभिव्यक्त करती है । इस दर्शन से पूर्णत: सहमत हूँ कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश - क्रमशः कर्ता, संरक्षक और विनाशक हैं। साथ ही, मैं किसी भी दर्शन को नास्तिक नहीं मानता, क्योंकि उसमें सन्निहित क्रम मानव - कल्याण से ही आबद्ध रहता है । जीवन की सत्यता इसी पर आधारित है । यह पृथक् पक्ष है कि मति भिन्नता के कारण हम आपस में लड़ने, संघर्षरत होने और राग-द्वेष से सम्बद्ध होने लगे। जीवन की वास्तविकता, विश्व-कल्याण का क्रम यही है कि विश्व में कोई
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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