________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 87 “नियम-संयम के सम्मुख/असंयम ही नहीं, यम भी अपने घुटने टेक देता है,/हार स्वीकारना होती है
नभश्चरों सुरासुरों को !'' (पृ. २६९) कवि ने आधुनिक भावबोध को अपनी कृति में अत्यन्त सहजता के साथ उपस्थित किया है तथा अपराधियों की चर्चा करते हुए गणतन्त्र, धनतन्त्र और मनमाने तन्त्र की स्थिति स्पष्ट कर दी है। इतना सब कुछ होते हुए भी कवि ने परिष्करण के महत्त्व को बबूल के माध्यम से निरूपित किया है । तदनन्तर अग्नि-परीक्षा की चर्चा करते हुए कवि ने लिखा
"मैं इस बात को मानती हूँ कि/अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक
किसी को भी मुक्ति मिली नहीं,/न ही भविष्य में मिलेगी ।" (पृ. २७५) अग्नि-परीक्षा की बात के साथ दोषों को जलाने के सम्बन्ध में स्व-इच्छा का कथन कहकर काव्य के उदात्त तत्त्व को अभिव्यक्त किया है :
"मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है
स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने।" (पृ. २७७) इसी के साथ कवि आचार्यश्री समझाते हैं कि दोष तथा गुण क्या हैं :
"दोष अजीव हैं,/नैमित्तिक हैं,/बाहर से आगत हैं कथंचित्;
गुण जीवगत हैं,/गुण का स्वागत है।" (पृ. २७७) कवि आचार्यश्री ने चतुर्थ पद के माध्यम से जीवन के अनेक पक्षों को चित्रित किया है तथा कथा-प्रसंग को अनेक घटनाओं से बाँधते हुए सत्पथ की विचारणा प्रस्तुत की है। इसी सन्दर्भ में आधुनिक काल में आतंकवाद का प्रभाव किस प्रकार बढ़ रहा है और उसे किस प्रकार समाप्त करना चाहिए, इस ओर भी कवि आचार्यश्री ने ध्यान दिया है। कविश्री ने कुम्भकार और कुम्भ के पक्ष को कितनी सहजता के साथ चित्रित किया है, साथ ही कुतूहल का क्रम निरूपित किया है और जीवन क्रम को विकसित किया है ! मानवीय गुणों का विकास भी अद्भुत ढंग से विवेचित हुआ है। कविश्री ने निर्माण के आनन्द का चित्रण जिस प्रकार किया है वह जीवन का सत्य है तथा मानवीय क्रम की मूल चेतना है। विवरण यों दिया है :
" 'कुम्भ की कुशलता सो अपनी कुशलता'/यूँ कहता हुआ कुम्भकार सोल्लास स्वागत करता है अवा का,/और/रेतिल राख की राशि को, जो अवा की छाती पर थी/हाथों में फावड़ा ले, हटाता है। ज्यों-ज्यों राख हटती जाती,/त्यों-त्यों कुम्भकार का कुतूहल
बढ़ता जाता है, कि/कब दिखे वह कुशल कुम्भ"।" (पृ. २९६) चतुर्थ पद इतना विशाल है कि उसका पूर्ण विवेचन ही विस्तृत रूप प्राप्त कर सकता है । इसमें जीवन का कौन-सा पक्ष वर्णित नहीं है ! यहाँ, मैं अब केवल एक उदाहरण देने के पश्चात् अपनी बात कहते हुए, 'चिन्तन : अनुचिन्तन' की विचारणा को विश्राम दूंगा । कवि आचार्यश्री ने सामाजिक विचारणा का अत्यन्त मार्मिक निरूपण किया