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86 :: मूकमाटी-मीमांसा तथा किस प्रकार अन्य की वस्तु के हरण से वह निम्न कोटि का होने के साथ पापमय बन जाता है-कवि ने इस प्रकार प्रकृति के आन्तरिक रूप का निरूपण अत्यन्त मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है तथा उसे मानवी जीवन से सम्बद्ध कर दिया है । अत्यन्त सहज ढंग से कवि कहता है :
"पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना/अज्ञान को बताता है, और पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना/मोह-मूर्छा का अतिरेक है। यह अति निम्न-कोटि का कर्म है/स्व-पर को सताना है,
नीच-नरकों में जा जीवन बिताना है।” (पृ. १८९) सन्त कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत पद के प्रारम्भ में ही ऐसा मन्त्र दिया है कि मानव अपने आप मन-वचन-कर्म (शरीर) से स्वयं को निर्मल बनाने की ओर अग्रसर हो जाता है तथा शुभ कार्यों की ओर, लोक-कल्याण की ओर तथा समस्त विश्व को समदृष्टि से देखने की ओर उन्मुख हो जाता है। उसे समझ में आ जाता है कि माया, मोह, लोभ, संग्रह आदि पाप के अंग हैं और स्वयं को शुद्ध तथा निर्मल भाव से पुष्ट करते हुए कर्म की ओर लगना पुण्य कर्म है। इसी के साथ कवि ने रत्नाकर-शब्द-ब्रह्म को जिस प्रकार विश्लेषित किया है, वह काव्यपक्ष की अनुपमता को पुष्ट करता है। सब कुछ सहन करने की वृत्ति को निरूपण करते हुए सन्त की महत्ता को व्यक्त किया है । अन्याय को सहन नहीं करना चाहिए, इस तथ्य को सूर्य का प्रतीक वर्णित करते हुए किया है। जीवन की सुखपूर्ण स्थिति का महत्त्व तो पुण्य कर्म करने में है तथा दुखपूर्ण स्थिति पाप कर्म में है - इसमें व्यक्त किया है । इसी क्रम को निरूपित करते हुए 'अर्थ' शब्द की मीमांसा अद्भुत ढंग से की है। कवि ने अर्थ और परमार्थ को यों व्यक्त किया है :
"यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) प्रस्तुत पद में कवि ने नारी के अपूर्व रूप का चित्रण किया है तथा उसके अनेक रूपों का सार्थक विवरण प्रस्तुत किया। कवि ने एक साथ नारी के मातृत्व, सुता, दुहिता, स्त्री, कुमारी, अबला, नारी आदि रूपों का साहित्य की दृष्टि से, जीवन-दर्शन की दृष्टि से एवं पुण्य-पालन के रूप में वर्णन किया है। कवि के शब्द सामर्थ्य की, प्रतिभा की, कल्पना शक्ति की अनुपमता दृष्टिगत होती है, जो जीवन के मूल को अभिव्यक्त करती है एवं सत्य मार्ग की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। कवि आचार्यश्री ने इस पद के माध्यम से कथा का विकास तो नहीं किया है, परन्तु अन्त:कथाओं, जीवनगत पहलुओं, पुण्य प्राप्त करने का क्रम, पाप से मुक्त होने का पथ, जीवन-यात्रा का लक्ष्य आदि तथ्यों को निरूपित किया है। सच तो यह है कि प्रस्तुत पद कवि के काव्य सौष्ठव को सिद्ध करता है । कवि की कल्पना-शक्ति, प्रतिभा, प्रकृति चित्रण के साथ उसका सूक्ष्म निरीक्षण प्रभावी ढंग से हमारे समक्ष उभरकर आता है । इसी क्रम में कवि ने कुम्भकार शिल्पी के चरित्र का विकास चित्रित करते हुए पाप-प्रक्षालन की विधि का श्रेष्ठ ढंग से निरूपण किया है, जो काव्य को उच्चता एवं भव्यता प्रदान करती है एवं मानवीय गुणों के विकास-पथ का चित्रण उपस्थित करती है। अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख : आचार्य कवि ने चतुर्थ पद के माध्यम से अपनी कृति के मूल को सजाया है तथा जीवन के मूल भाव को शुद्ध करने की ओर अग्रसर हुआ है। प्रस्तुत पद काव्य कृति का सर्वाधित विस्तृत पद है । इसके माध्यम से कवि ने साधना के स्वरूप को चित्रित किया है। उसके प्रमुख पक्ष-नियम-संयम की ही बात कवि ने प्रारम्भ में कही है तथा उसके प्रभाव को निरूपित किया है । वह इस प्रकार है :